नए दिमागों की मुझे

नए दिमागों की मुझे
हर गली में आहट लगती है
अब चाँद से ज्यादा चमकती मुझे
बनावटी रोशनीयों की सजावट लगती है
बहर ए हकीकत में 
नए अहद की उभरती हाट लगती है।।
(बहर=समुंदर,हाट=बाजार)
गिरते पड़ते धीरे धीरे चलने 
से वाहनों पर गरदिश करना सिख गए
फटीयों पे कलम से,कलम से स्लेट
स्लेट से कागजों पर पैन से लिख गए
कितने हाथ मेहनती लकीरों वाले
नाम आधुनिकता के बिक गए।।
(गरदिश=घुमना)
जहन में माँ के हाथों का खाना बसा
अब खुद बना खाया करते हैं
ख्वाबों की मंजिल जो पाई
उस डियूटी पर रोज़ जाया करते हैं
चाय की चुस्कियाँ जो बैठ पी लेते थे
अब उसे थकान का दुश्मन बताया करते हैं।।\
एक राबता नए जमाने से निभाते निभाते
सोचो क्या हम सच पा गए
क्या यही रास्ते का अंत था
जहाँ तक हम आ गए
समय को बचाते बचाते
हम कितना ही गवा गए
मजबूत तो बस चीजें करनी थी
पर अब शायद दिल भी पत्थर बना गए
सोचना! देखना! परखना!
हम कहाँ आ गए।।।।
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This poem won in Instagram Weekly Contest held by @delhipoetryslam on the theme 'Indianess'

1 comment

  • Brilliantly written.

    Akhilesh Sharma

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