By गोविन्द 'अलीग'

भूलता ही नही मुझे वो शख्श,
जो बसा था मेरे दिल के अंदर,
मेरी कोई रात नही कटती,
उसके कुछ पल याद किये बग़ैर,
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मुझे भूलता नही उस ट्रेन का सफ़र,
एक हमसफ़र मिला था ट्रेन के अंदर,
सीट पे बैठते, देखा खूबसूरत मंज़र,
ऐसी हसीन दास्ताँ होगी नही थी ख़बर,
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एक गुल पे दो भौरों मंडराने लगे,
उसे भौंरो का खेल लगे मस्तकलन्दर,
हम भी सोचते रहे उन्हें रात भर ,
ये सब हुआ उसकी बातों का था असर,
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चौतरफ़ा हरियाली दिखे खुशनुमा मंज़र,
वो मेरे दिल में बना यादों का समन्दर,
उसके बिना सुकून न बाहर, न ही अंदर,
वो शायद थी महकती सांसो का पैगम्बर।।
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उसकी तमाम तमन्नाओं से प्यार करते है,
तन्हा छोड़ दिया, फिर भी याद करते है,
साथ दिया उसने हर मोड़ पर सोचते है,
इसी उम्मीद में आज भी इंतजार करते है,
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Can I share a poem here related to train incidence
Amazing poem.Too gud
Beautiful 🌸