तूणीर – Delhi Poetry Slam

तूणीर

By Wanishree Jha

बरसों बिसरी बात बतावे, सुनियो रखे धीर,
भाँप ताप से तपके कहीं, लहू होय लौह जंजीर।
जोड़ जोड़ के कण कण कैसे, बनाये रहे एक कुटीर,
बसने बेर फिर बैर समाये, खड़े दरवाजे लिए तीर।

शक़ के आड़े देखे सबको, आईना फोड़े हाय रे वीर!
टुकड़े चुभे तो लड़ने लागे, मन के हारे गुमानी शरीर।
जिस नींव खड़ी दीवार किये, अब छत की छाती चीर,
सबके मुख मानो तीर सधे, तब ये घर जैसे तूणीर।

एक पहर फिर फूल खिले, माँगे प्रेम-प्याला नीर,
ढूंढे भले पर कभी ना मिले, कि सुखा पड़ा है मन मंदिर।
थमाये तीर अब उसे भी कहे, भेदो निशाना तनिक स्थिर,
लगा ताकने पल पल प्याला, धूल हुआ उसका तासीर।

ज्यों ही प्याला पाया, बढ़ा आगे खींचकर एक लकीर,
पीछे मुड़कर वो ना देखे, भावे उसको रंग अबीर।
तरसे तीर कराहे अब, झर्झर करे जंग, उम्मीदें झिर;
आवाज़ गूंजे है यहाँ, निरास से कंधे, मायूस तूणीर।

देर रात रोज़ जराये डिबिया, निहारे सिरहाने सहेजे तस्वीर;
भोरे-भोर कोई खबर बताये, मुरझा गया फूल — जड़ से था गंभीर।
सुनते ही भागा, पर किस ओर कमान कसे, कुहरे होय अधीर;
दोष निर्दोष का तराजू उठाये, बनने चले वीभत्स अपने वज़ीर।

व्यथा विस्तार विमर्श के अंत में, पाये खुद को ही मुख बधिर,
बाट जोहे किसकी हम, चुभे है बिन खुशबू सब साँझ समीर।
कोई डोरी उससे बांधे होते, तो खींच उसको सींचते तक़दीर;
श्वास के रण में प्रेम से हारे, तो कैद करे सौ सूनेपन को एक तूणीर।

अब बचा गया था जो इस घर में, चुप्पी और सब तितिर बितिर,
कलियाँ तो भी अब बाकी है, कहता जाए हर गुजरता पीर।
शायद अब प्रेम से भेंट होवे, सोचे कलियाँ, आनंद अमीर,
सोचे कलियाँ के तीर खुद तोड़ेगा जंगीर,
जो बचा है या जो चला गया किसी के ख़ातिर।

उसी दोपहर गिर गयी सारी कलियाँ, लताओं ने रौंद दिया सिर,
तीर कहे — कल से सीख बाँधा उनको, यहीं शुरू और यहीं आखिर।
खत्म ख़्वाहिशों की नस्ल, सत्ता-सा रोग कायम जैसे उठता खमीर,
भूले से भी तीर ना साधना, कहता वो घर जो बन गया तूणीर।


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