By Vibhav Saxena
प्रेम वस्तुतः क्या है और कैसी है इसकी भाषा,
युगों युगों से जिसने दी है जीवन को परिभाषा।
तो सुनो, आपको मैं प्रेम के बारे में कुछ बताऊं,
प्रेम को जितना मैंने समझा, आपको वह सुनाऊं।
प्रेम एक भाव है — मौन, शांत, स्थिर, स्पर्शहीन-सा,
जीवन में रस और सुगंध देकर भी गंधहीन-सा।
शाश्वत है, कभी किसी भी स्थिति में मरता नहीं,
है जगत में कौन ऐसा जो कभी प्रेम करता नहीं?
आकर्षण, स्नेह और मोह से पल्लवित होकर प्रेम,
एक दिन जीवन की आवश्यकता-सी बन जाता है।
वह पूर्ण और साकार हो सके तो इससे अच्छा क्या,
किन्तु अपूर्ण हो तो भी बलिदान की उपमा पाता है।
पुरुष भले ही रीझता स्त्री की शारीरिक सुंदरता पर,
किंतु स्त्री सदैव ही झांकती पुरुष के मन के भीतर।
प्रेम के आकर्षण से तो जीव-जन्तु तक परे नहीं हैं,
वे केवल पाषाण जिनके हृदय प्रेम से भरे नहीं हैं।
प्रेम नहीं है कोई वस्तु जिसका सर्वत्र प्रदर्शन हो,
सच्चा प्रेम वही है जिसमें मन से मन का दर्शन हो।
रहें आत्मीय सम्बन्ध, परन्तु कभी मर्यादाएं न टूटें,
प्रेम सार्थक वही होता है जिसमें संस्कार न छूटें।