By Vartika Mittal

अवधपुरी के राजा दशरथ,
रानियां थीं उनकी तीन।
थी न कोई संतान किसी को,
दुख ये रोज़ सताए।
पुत्र रत्न की चाह में,
फिर यज्ञ पाठ करवाए।
अग्नि देव फिर प्रगट हुए,
संग पत्र खीर की लाए।
दशरथ को देकर बोले-
जा, मनोकामना पूर्ण हो जाए।
जन्मे रघुनंदन अवध में तब,
सब झूम-झूम कर गाएं।
संग में आए तीन भाई-
लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कहलाए।
प्यार था इतना चारों में,
कि कोई तोड़ न पाए।
एक दूजे की परछाई हो जैसे,
ऐसे सारे घुल-मिल जाएं।
शिक्षा लेने आश्रम संग,
गुरु के अपने जाएं।
लौटे वापस जब शिक्षा ले,
मिथिला नगरी हो आए।
चढ़ा प्रत्यंचा पिनाक धनुष की,
सीता के मन को भाए।
संगिनी बनाके सीता को,
अवध में संग ले आए।
झूम उठी तब अयोध्या सारी,
सबने मंगल गाए।
सोच विचार कर दशरथ ने,
राम को राजा बनाए।
थी कुटिल एक दासी मंथरा,
कैकई को कुटिल बनाए।
बोली भेजो वन में राम को,
भरत को राजपाठ दिलाए।
भर गए कुटिल भाव मन कैकई के,
दशरथ को बुलवाए।
याद दिला दो वचन फिर अपने,
अपने मन की करवाए।
गए राम तब वन में भटकने,
संग सिया लखन भी जाएं।
करके पूरा वचन पिता का,
मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए।
मिले वो मित्र निषादराज से,
जमना पार कराए।
भटक-भटक फिर वन अपना,
जीवन राम बिताए।
आए मिलने भाई से अपने,
भरत संग सेना लाए।
साथ चलने को अपने राम को,
भरत-शत्रुघ्न मनाएं।
मना किया जब चलने से राम ने,
संग खड़ाऊं अवध ले आए।
राजपाठ संभाला भरत ने,
राम खड़ाऊं सिंहासन बिठाए।
एक दिन वन में आई शूर्पणखा,
बनकर सुंदर नारी।
बहलाया, फुसलाया राम को,
बनने को महारानी।
हुए क्रोधित लक्ष्मण ने,
नाक उसकी काट डाली।
सारी सुंदरता बदल गई तब,
राक्षस वेश में आई।
रोती बिलखती शूर्पणखा,
भाई रावण की शरण में आई।
बदला लेने का निश्चय कर,
रावण ने नीति बनाई।
बीते वर्ष कई जब वन में,
बचा महीना एक।
विपदा आई ऐसी,
सुनकर नीर से भर गए नेत्र।
रावण ने अपनी माया से,
तब ऐसा जाल बिछाया।
स्वर्ण हिरण को पाने की चाह ने,
संकट को बुलवाया।
करने हरण जब सीता का,
लंका से रावण आया।
उठा ले गया पुष्पक विमान में,
सीता चीख-चीख बुलाए।
खोज में निकले सीता की,
राम-लखन वन-वन को जाएं।
मिला नहीं निशान जब एक भी,
मन ही मन घबराए।
मिला मसीहा उनको एक ऐसा,
खुद को जो रामभक्त बतलाए।
मिलवाया सुग्रीव से राम को,
मित्रता करवाए।
दिखा के गहने सीता मां के,
सब राम-लखन बतलाए।
किया निश्चय सिया वापिस लाने का,
ठानी लंका जाने की।
तब बनाकर सेतु लंका तक,
संग सेना के यमुना पर की।
हुआ युद्ध घमासान कई दिन तक,
रावण सेना सब मार गिराई।
किया उद्धार कुंभकर्ण का,
फिर मेघनाद की बारी आई।
चलाया बाण एक ऐसे विष का,
जिससे लक्ष्मण को मूर्छा आई।
संजीवनी लाकर हनुमत ने,
लक्ष्मण की फिर जान बचाई।
हुआ युद्ध एक बार फिर,
मेघनाद ने आखिर हार ही पाई।
लंकेश आए युद्ध भूमि में फिर,
लेने को बदला हार का।
किया उद्धार श्रीराम ने उसका,
ताकि हो अंत अहंकार का।
नाभि में एक बाण चलाया,
अमृत कलश फिर टूट गया।
हुआ अंत फिर रावण का,
वो शव शैय्या पर लेट गया।
मिले सिया और रामचंद्र,
जीत का सबने जश्न मनाया।
आए लौट अवध में सियावर,
घर-घर सबके उत्सव छाया।
बनी दिवाली दीपों की,
हर घर ने ये उल्लास मनाया।
राम-सिया को राजपाठ दे,
अवधपुरी का भाग्य जगाया।