Umr… ek padaav – Delhi Poetry Slam

Umr… ek padaav

By Fatima Rizvi


सड़क को पार करते हुए वो एक फूल की दुकान पर दूसरी तरफ पहुंचे और लड़खड़ाते हाथों को उठाते हुए अज़ीज़ ने एक गुलाब की तरफ इशारा किया।

दुकानदार ने उन्हें वो लाल गुलाब थमा दिया।
अब वो उसे अपने कोट के अंदर की जेब में रखते हुए आगे बढ़ गये!
सड़क अभी भी गीली थी और आसमान, मानो अभी भी बादलों को बरसने की इजाज़त दे रहा हो'।
ख़ैर, अज़ीज़ आगे बढ़े और चलते गये अपनी मंज़िल की तरफ।

अब वो एक पुराने से लकड़ी के दरवाज़े पर दस्तक देने ही वाले थे कि दरवाज़ा खुला , और ठीक सामने ज़ारा खड़ी थीं!

दरवाज़ा खोलते ही ज़ारा ने सलाम के साथ एक मुस्कराहट अज़ीज़ के हवाले कर दी।
ज़ारा का चेहरा जो कि अब बुढ़ापे की वजह से ज़र्द हो चुका था उसे अभी तक रोशन करने वाली वो मुस्कराहट, एक अलग ही सुकून अज़ीज़ के चेहरे पर नुमायां कर रही थी।
अज़ीज़ मुस्कुराते हुए घर में दाख़िल हुए !

अज़ीज़ ने अपना ख़ाकी मफलर उतारा और खूँटी पर टांग दिया। और ज़ारा जोकि चाय गैस पर रख कर दरवाज़ा खोलने आयीं थीं , फिर से चाय बनाने चली गयीं!

अज़ीज़ पानी लेने उस घड़े की तरफ आये जो सहन के बिल्कुल कोने में एक पुरानी मेज़ पर रखा था। किचन के ठीक सामने।
और वो ज़ारा को शफ़क्कत भरी निगाहों से देख रहे थे, फिर वो किचन में दाखिल हुए और उन्होंने वो लाल गुलाब ज़ारा के सफ़ेद बालों में सजा दिया।

ज़ारा: "अरे, ये क्या? आज कुछ नया है क्या जनाब?
अलग तरीक़े से पेश आ रहे हैं आप।

" अज़ीज़: "लगता है बुढ़ापे की ओर मुझसे ज़्यादा जल्दी जा रही हो।
इसीलिए तुम आज का दिन याद नहीं कर पा रही हो“

शादी की सालगिरह है बेगम हमारी आज
और इसलिए तो लाए हैं हम ये लाल गुलाब।

ज़ारा: "अब बुढ़ापे में आपको भी क्या सूझ रहा है
चलिए अब कमरे में जाएं ये तेल जल रहा है “

और ये कहते ही ज़ारा ने गर्म तेल में पकौड़े डाल दिए। अज़ीज़ साहब जो अभी अपने कमरे में तशरीफ़ लाए ही थे जाकर उस कुर्सी पर बैठ गये जो खिड़की के ठीक बराबर में थी !

कुछ ही देर गुज़री थी कि ज़ारा पकौड़े लेकर अंदर कमरे में दाखिल हुई।

अज़ीज़: "वाह, क्या ख़ुशबू है बेगम। आपने पुराना ज़माना याद दिला दिया आज
बैठो तो ज़रा कुछ गुफ्तगू हो जाए साथ”

अज़ीज़ ने ज़ारा के हाथ से पकौड़ो और चाय की ट्रे लेकर बैड पर रख दी , और फिर उन्होंने खिड़की पर से पर्दा हटाया,
वो खिड़की के शीशे पर बारिश की बूंदों को देख कर अभी मुस्कुरा की रहे थे कि ज़ारा भी खिड़की के पास आ गयीं

अज़ीज़ अभी भी एक गहरी सोच में डूबे हुए थे , कि ज़ारा ने पूछा
ज़ारा: "आप क्या सोच रहे हैं?"


अज़ीज़ ने मुस्कुराते हुए ज़ारा की तरफ़ देखा

अज़ीज़: "सोच रहा हूँ उस बात को गुज़र गए ज़माने
जब हम थे एक दूसरे के लिए बिलकुल अनजाने”

बस युही किसी राह में टकरा गई थी आप
जब मैं , सदाक़त और शायद … इक़बाल भी था साथ ।

अज़ीज़ की बात पर ज़ारा हल्की सी मुस्कुरायी
फिर आगे की बात अज़ीज़ को उन्होंने याद दिलवाई.

“इतवार का बाज़ार था और चूड़ी की दुकान
लेने गई थी मैं जमीला के साथ अपना कुछ समान।”

अज़ीज़ “हम्म.. याद है मुझे तुम्हारा पहला लहजा वो तर्क
गलती से टकरा गये थे हम बरखुद्दार जब ।

देख रहे थे हम आपको भई ऐसा कैसे हो सकता है
बग़ैर रुके एक सेकंड भी …कोई इतना कैसे बोल सकता है!
निकल तो गये हम किसी तरह से मुआफ़ी माँग कर,
बस नहीं निकल पाया तो वो था ख़याल आपका ज़हन पर !
काजल भरी आँखें वो … ग़ुस्से की निगाह
देखते ही जिसे हम हो गये थे तबाह !
फिर तो बस हम थे और था बस इतवार
चक्कर काटते रहते हम सारा बाज़ार..

मगर मैंने तुम्हें वहाँ फिर दोबारा नहीं पाया
और बस इसी उम्मीद में के कभी मिलोगी, मैं हॉस्टल चला आया!

चेहरे बहुत टकराए मगर तुमसा नहीं कोई
मैं सोचता था पता नहीं तुम कहाँ खो गई

दिन बीते , महीने गुज़रे, साल का था सफ़र
ढूँढता था उस चेहरे को जो मेरी आँखों में था बसर

फिर हुआ कुछ ऐसा क़िस्मत ने खेल दिखाया
और मैंने तुम्हें एक दिन अपने कॉलेज में ही पाया.

अज़ीज़ की बात पर ज़ारा ने जवाब दिया

“ बारहवीं के बाद हमारा उसी कॉलेज में दाख़िला करवाया था,
भाईजान को भी तो बाबा ने उसी कॉलेज से पढ़वाया था


अज़ीज़ ने आगे की कहानी सुनायी

वो सफ़ेद रंग का सूट और दुपट्टा गुलाबी
वही लंबे बाल और ..हाहा ..अन्दाज़ भी …वही ..बिलकुल नवाबी..

बड़ी हिम्मत करके जब मैं तुम्हारे पास आया था
तुम्हारी नज़रों में खुदको मैंने बिलकुल अजनबी पाया था

ज़ारा
“ दरअसल मेरी नज़र उस वक़्त प्रोफेसर दिलीप को ढूँढ रही थी ,
जिनको मुझे अपनी फ़ीस जमा करनी थी !

अज़ीज़
“बस हमने भी तो इसी बात का फ़ायदा उठाया
और आपको हमने जाकर प्रोफेसर दिलीप से मिलवाया”

इस बहाने ही सही आपने हमसे बात तो की
और उस दिन हमे सच में बहुत ख़ुशी हुई !

मैंने अपने दिल को समझाया बार बार यही
मोहब्बत ना सही लेकिन दोस्ती की शुरुआत तो हुई !

ज़ारा ने हस्ते हुए चाय का कप उठाते हुए बोला

हमने भी आपमें एक अच्छा दोस्त पाया
इसलिए शायद मैंने एक क़दम आगे बढ़ाया, और भाईजान को आपके बारे में बताया


अज़ीज़ ने एक पकौड़ा उठाकर ज़ारा की तरफ़ देखा
, मुस्कुराये और फिर वही पुराने दिन याद करने लगे!

तुम्हें याद है शिमला का वो पकौड़े का स्टाल
कितना सुहाना मौसम था खूबसूरत था माहौल
और बेगम आप पकौड़े की रेस में हमसे गई थी हार

ज़ारा ने अज़ीज़ की बात पर मुँह बनाकर जवाब दिया
“और आप उड़ा रहे थे मज़ाक़ हस हस कर बार बार“

“ भई इसी बात में तो हमे सबसे ज़्यादा मज़ा आता था
जब आपका हमारे चिढ़ाने से मुँह सा बन जाता था
वो चेहरा आपका हवा में लहराते हुए बाल
अभी भी ताज़ा है यादों में शादी के बाद का वो साल

ज़ारा ने मुस्कुराते हुए अज़ीज़ की तरफ़ देखा , और फिर उसकी नज़र अज़ीज़ के ठीक पीछे रखे उस पुराने टेलिस्कोप पर पड़ी जो मेज़ से सटा खड़ा था।

ज़ारा फिर मुस्कुरायी और सोचकर बोली

चाँदनी की चादर में लिपटी वो रातें
खुली आँखों से देखी अनगिनत वो सौगातें

रात में खुले आसमान को देखना
और हज़ारो सितारों से हमारा बातें करना

हर सितारे की अपनी एक कहानी
सुनती थी रातों को मैं आपकी ज़ुबानी

अज़ीज़ अभी ज़ारा कि बातें सुन ही रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने की आवाज़ आयी , और ज़ारा खिड़की की तरफ़ देखने लगी!

अज़ीज़ ने मानो ज़ारा का चेहरा पढ़ा हो

बारिश का वो दिन और कड़क बिजली रही थी
और ठीक इसी तरह तुम उस दिन भी डरी थी
जब थियेटर दिखाने तुम्हें ले जा रहा था मैं
मोहद रफ़ी साहब का वो गाना गुनगुना रहा था मैं


ज़ारा ने अज़ीज़ की बात पर जवाब दिया…

उस दिन मैंने आपकी तोहफ़े में दी वो पीली साड़ी पहनी थी
जो बारिश और कीचड़ की वजह से ख़राब हो गई थी


अज़ीज़ ने बहुत ज़ोर का कहकहा लगाया

“जिसकी पेनल्टी भी मोहतरमा हमको ही चुकानीं पड़ी ,
और उसके बदले में आपको एक नयी साड़ी दिलानी पड़ी !
मगर वो पीली साड़ी भई आप पर बहुत जंचती थी
और मुझे उस साड़ी में आप बहुत अच्छी लगती थी

ज़ारा ने अज़ीज़ की बात पर जैसे मुँह सा बनाया
“ मगर आप भी तारीफ़ के ,थोड़ा कंजूस ही थे
ये सब तो कभी बताया ही नहीं आपने मुझे

अज़ीज़ ने नीचे निगाह करके मुस्कुराते हुए बोला

“लेकिन फिर भी बिना बताये सब समझ जाती थी तुम
मानो जैसे मेरी आँखें पढ़ जाती थी तुम !

तुम्हें ये सब भला कैसे पता चल जाता था
मेरे खटखटाने से भी पहले दरवाज़ा कैसे खुल जाता था ?भई कई बातें तो मुझे इन साठ सालों में भी समझ नहीं आयी
और तुमने भी तो मुझे कभी नहीं समझायी !

ज़ारा ने अज़ीज़ की तरफ़ देखा ..

अज़ीज़ ने अपनी बात आगे बढ़ायी

“मेरे आहट से भी पहले दरवाज़े का खुल जाना
मैं दूर कहीं तुम्हें याद करता तो तुम्हारा ख़त का अचानक मेरे पास आ जाना
तुम्हारा मेरे बग़ैर बताये मेरे मनपसंद खाना पकाना
मेरे बिना कहे जैसे तुम्हारा मेरे दिल को पढ़ जाना “

ज़ारा अज़ीज़ को देख कर मुस्कुरायी

“बिलकुल ऐसे ही जैसे आप बग़ैर बोले मेरे हर बात समझ लेते हैं,
मेरी आँखों में देख कर मेरा चेहरा पढ़ लेते हैं

जैसे बग़ैर बताये मेरी उलझनों को सुलझा देते है।
मेरी उदासी को भी अपनी हसी से भगा देते हैं

अंधेरों में एक सूरज की किरण बन जाते हैं आप
मेरी तनहाई में जैसे साये सा छा जाते हैं आप !

जैसे हर ख़्वाब को मेरे आपका अपना ख़्वाब बनाना
और मेरे हाथ को आपका मुश्किलों में थामना

इत्तेफाक़ नहीं ये कोई अज़ीज़ साहब, बस मोहब्बत का तराना है !
इन साठ सालों के खूबसूरत सफ़र का एक खूबसूरत सा फ़साना है!

~ फ़ातिमा रिज़वी …


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