माँ – Delhi Poetry Slam

माँ

By Tushar Mehta

मेरे आने की ख़ुशी से अचानक क्यों बदल गई माँ मेरी,
एक प्रेगनेंसी रिपोर्ट की लकीर से अचानक क्यों अटक गई माँ मेरी।

शब्दों में दिखती छोटी पर रिश्तों में बेमिसाल हुआ करती थी,
खुशनसीब था मैं वो दिन जब माँ मेरे पास हुआ करती थी।
“खाना खाया कि नहीं मैंने”, चिंता उसे लगातार रहा करती थी,
सच कहता हूँ यारों, मेरे आने से पहले वो भी बेफिक्र रहा करती थी।

मेरे आने की ख़ुशी से अचानक क्यों बदल गई माँ मेरी,
एक प्रेगनेंसी रिपोर्ट की लकीर से अचानक क्यों अटक गई माँ मेरी।

वो भी पापा की परी और माँ का दुलार हुआ करती थी,
अपने ख़्वाबों में वो भी दिन-रात झूमा करती थी।
न जाने कितने दिलों की धड़कन या तो ड्रीम गर्ल हुआ करती थी,
अपनी माँ की हमसफ़र और उसके चेहरे की मुस्कान हुआ करती थी।

जी रहे हैं ज़िंदगी जो हम आज, उससे कई बेहतर जिया करती थी,
बिंदास वो भी थी मेरी तरह — फ़िक्र कहाँ किसी की करती थी।

मेरे आने की ख़ुशी से अचानक क्यों बदल गई माँ मेरी,
एक प्रेगनेंसी रिपोर्ट की लकीर से अचानक क्यों अटक गई माँ मेरी।

पढ़ी-लिखी बहुत थी, पर गिनती कहाँ उसे आती थी,
भूल ही जाती थी गिनती हमेशा जब रोटी की बात आती थी।
माँगूं दो रोटी तो हमेशा चार ही खिलाती थी,
समझा, फुसला, धमका कर दाल भी साथ खिलाती थी।

माँ का ऋण हम क्या चुकाएंगे?
बिना तनख़्वाह वाली नौकरी कैसे कर पाएंगे?
बिना लिए छुट्टी एक भी दिन, सालों-साल घर चलाती थी,
रात-रात भर जगकर मुझे सुकून की नींद सुलाती थी।

बुखार आए तो सर पे हाथ जब वह घुमाती थी,
थर्मामीटर की नौबत फिर कहाँ आती थी।
गोदी में रख कर सर मेरा बुखार को यूं ही भगाती थी,
दवा के साथ दुआ करके बुरी नज़र वही तब भगाती थी।

खुशनसीब हैं वो जिनकी माँ सफ़र में साथ हुआ करती है,
पकड़ के रखना दामन उसका, न जाने कब निकल जाती है।
हँसाते रहो उसको, बस वही उम्मीद दिन-रात उसे रहती है,
भगवान तो कभी मिला नहीं, पर माँ के चरणों में जन्नत रहती है।


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