पहचान – Delhi Poetry Slam

पहचान

By Trivendra Taragi

पहचान करने चला था दूसरों की, 
‎खुद को ना पहचान सका जो कभी, 
‎कैसी विडंबना है ना अभी! 
‎कितना खूबसूरत है यह दृश्य अभी! 

‎पहचान करने चला था दूसरों की
‎खुद को ना पहचान सका जो कभी,   
‎सामने खड़ा था वह शीशे के सम्मुख, 
‎दृश्य परिवर्तित होने चला, यथार्थ उसके सम्मुख खड़ा! 

‎प्रश्न पूछ रहा वह खुद से उत्तर मिल रहा उसे सामने
‎सुन रहा कुछ बीती दिखा रहा कुछ अनदेखी, 
‎कल्पनाओं का दृश्य शीशा पूछ रहा अब उससे
‎तू है कौन? और क्या करने आया? 
‎जो तू है क्या तू वही बनने आया! 

‎संवेदनाएं हुई रूह में कुछ ऐसी 
‎अहसास हुआ अभी के अभी, 
‎खुद के कुछ कार्य बाकी है 
‎खुद को जानना अभी बाकी है!  

‎यथार्थ में हुआ पुनः प्रवेश 
‎कुछ अजीब अजीज सा था
‎भावनाएं थी बदली बदली, 
‎किरदार में कुछ नया सा था

पहचान करने चला था दूसरों की
‎यह अब कुछ नया नया सा था!


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