By Avinash Tanty
मैं एक छोटा सा बचपन था।
पेंसिल पकड़ने से पहले गालियों का मतलब सीख गया।
क्लास 3 में था,
पर इंसानों ने मुझे शिक्षा दी कि मुझे असुर बनना है।
"अच्छे बच्चे झगड़ा नहीं करते,"
"गाली नहीं देते।"
बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं,
और सुबह क्लास के 32 भगवान
मेरी पेंट उतार कर देवताओं को प्रसन्न करते।
मैं चुप होता,
मानो मैं इस युग का आधा मानव
और भैंस का स्वरूप हूँ
जिसकी भावनाओं की बली
देवताओं के चरणों में चढ़ाई जाती हो।
मैंने टीचर से शिकायत की,
टीचर ने तक कहा –
"तुम भी तो गंदा बोलते हो।"
पर मैंने तो कुछ कहा ही नहीं था।
मैं तो बस अपनी मां की इज्जत बचा रहा था,
जिसके बिस्तर पर
क्लास के 32 भगवान चढ़ने को उत्सुक थे।
मेरा टिफिन छीना जाता,
माँ महर्षि की दी हुई रोटियाँ
मुझे कभी नहीं मिलती थीं।
पैरों और जूते के स्वाद के आगे
मुझे रोटियाँ बेस्वाद लगने लगी थीं।
एक दिन इंग्लिश पीरियड में
मुझे सच में खुशी मिली।
मानो इंग्लिश ने मुझे स्वयंवर में चुना हो –
पर इंग्लिश ने नहीं,
टीचर ने एक सवाल पूछने पर
थप्पड़ जड़ दिया।
जिसकी गूंज के साथ
32 भगवानों के चेहरे पर मुस्कान ऐसी हो उठी,
मानो दुर्गा ने आज महिषासुर का वध कर दिया।
मैं काली दलदल की कीचड़ की तरह शांत था।
मेरे क्लास के 32 भगवानों
और देवी दुर्गा के आगे
मैं सिर्फ एक असुर था।
एक दिन सभी बच्चे पार्क में खेल रहे थे।
मैं भी वहीं था।
वहाँ एक इंद्र रूपी पुलिसकर्मी आया,
जिसके पास सभी बच्चों का परमिट था।
वह बच्चों को गोद में उठाता,
और स्नेह के बहाने
उनमें उर्वशी, मेनका और तिलोत्तमा का स्मरण करता।
बच्चे रोते थे,
पर उनकी आवाज़ में स्वर नहीं था।
उनका रोना बारिश से पहले के तूफान को दर्शाता था –
जिसमें बादलों की आंखों में
कुछ ही बूँदें आंसू होती हैं,
पर बादलों के स्वर
बहुत ज्यादा भयावह होते हैं।
और तब मैंने देखा – एक असुर।
क्लास 6 का लड़का, जो स्कूल का राजा था।
स्कूल की घंटी बजने से पहले ही
वह गेट के बाहर खड़ा रहता –
मानो पूरा स्कूल उसका हो।
उसकी आंखों में डर नहीं था।
उसके कदमों के निशान पर
चलने की हिम्मत किसी की नहीं थी।
उसका जमीन पर बैठना भी
इज्जत बन जाता।
पूरा स्कूल उसे
"अछूत असुर" कहता था।
उसके छूने से लोग
भस्म हो जाते थे।
लड़का हो या लड़की –
सब उसके नाम से डरते थे।
क्लास के 32 क्या,
पूरे स्कूल के 667 देवी-देवताओं का
वह बाप था।
मैं उसे देखता!
और एक दिन,
हाथ में स्केल,
पीठ पर लाल कपड़ा,
दोनों हाथों को ऊपर उठाए,
बाल नग्न अवस्था में,
शीशे में स्वयं को देख,
हिमालय के शिखर से
8 वर्ष आयु के स्वर में मैंने कहा –
"मैं महिषासुर हूं!
The Buffalo Demon."
रावण दहन की रात,
जब बुराई के पुतले जलाए जा रहे थे,
असली आग
एक औरत की ओर बढ़ी।
दर्शक देख रहे थे,
पर बचाने कोई नहीं आया।
तभी महिषासुर बना वह बच्चा
कवच बन गया।
रावण मर गया,
महिषासुर भी।
पर असली जीत
उस बच्चे की थी —
जिसने पहली बार
असुर होकर
एक देवी की रक्षा की थी।