By Talat Siddiqui
कई बार सोचा
कह दूँ तुमसे
कि मैंने छिपा रखा है
तुम्हारे प्यार की धूमिल स्मृति को अपने अंतस में
न जाने कब से...
जानते हो?
मेरी अनुभूतियों के धरातल पर ऊगा वृक्ष हो तुम
एक सायेदार वृक्ष...
कई बार चाहा तुमसे कहना
कि विश्राम करना चाहती हूँ मैं
तुम्हारी गोद की छाँव में, सिर्फ कुछ देर...
चाहती हूँ फिर से झूलना
तुम्हारी बाहों की शाखाओं को पकड़कर
एक बच्चे की मानिंद।
लड़खड़ाते हुए संभालना चाहती हूँ
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर एक बार फिर से...
पर मैंने जब भी चाहा तुमसे कहना
तुम्हारी आहट सुनते ही धँसते चले गए मेरे कदम
मेरे अंतस की गीली रेत में।
मेरे सूखे होंठ फड़फड़ाए तुमसे कुछ कहने को...
पर मेरे शब्द समा गए मेरे होंठों की दरारों में
और रह गया सिर्फ एक मौन...
मैंने कई बार चाहा अपने प्रश्नों के उत्तर ढूँढना
तुम्हारे चेहरे की शांत झुर्रियों में,
पर मुझे वहाँ मौन के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता...
मैं जानती हूँ तुम्हारे मौन के बीच छुपा हुआ है एक तूफ़ान
(शायद प्यार का)...
पर तुम्हारी आँखों के महासागर में
मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ती प्यार की एक भी बूँद...
बोलो न मेरे पिता...
क्यों है हमारे बीच
मौन की निर्मम दीवार?
जिसे मैं असमर्थ हूँ तोड़ पाने में...
बोलो न...
चुप्पी तोड़ो...
सिर्फ एक बार...
Very Nice expression. Well done!
Well written
That truly means a lot — thank you. Writing from a place of quiet honesty often says more than loud words ever can.