व्याकुल धरती की पुकार – Delhi Poetry Slam

व्याकुल धरती की पुकार

By Swati Jha

मैं पृथ्वी, जीवों की जननी, एकमात्र प्राण की दायी हूँ,
देती जो तुझे भोजन और पानी, मैं वही तो धरती माई हूँ।
सबकुछ ही तो दिया था तुझको, जो भी था जरूरी जीवन को,
फिर कैसी लालच आन पड़ी? तूने काट फेंक दिया वन-वन को! क्यों काट फेंक दिया वन-वन को?
क्यों खुद से ही खुद का जीवन, ऐसे कर रहा तवाह तू?
क्यों कचड़े भर-भर नदी-सागर का रोक रहा है प्रवाह तू?
पहले तो पढ़ा था हमने यही, की पाँच यहाँ ऋतुएँ होतीं हैं,
अब एक ऋतु में ना जाने, कितनी ही ऋतुएँ आ जाती हैं!
जब मौसम हो बारिश की, तब धूप क़हर यूँ ढाता है,
और बिन मौसम बरसात यहाँ, सबकुछ ही बहा ले जाता है।
हर साल टूट रहा रिकॉर्ड, हर मौसम के अधिकतम सीमा की,
इस वर्ष बढ़ा हुआ एल-नीनो, तो चर्चा कभी ला-नीना की।
मेरे हिम परत सब पिघल रहें, इस वातावरण की गरमी से,
ना जाने कब पिघलेगा तेरा हृदय, मेरी व्याकुलता की नरमी से।
ईश्वर ने तुझको ज्ञान दिया, तू क्यूँ अज्ञानी बन बैठा है?
मैं आगे तो मैं आगे, बस इसी बात पे ऐंठा है।
अपने सहुलियत के हिसाब से, तूने सब विस्तार किया,
मेरे ही सीने पे खड़ा हुआ, मेरी ही हुलिया बिगाड़ दिया!
क्या सोचा है तुमने ! कभी इन बातों को फुर्सत में?
क्यूँ संजो रहा अभिशाप, अपनी अगली पीढ़ी की विरासत में?
अब झुक गए हैं मेरे कंधे, तेरी इक्षाओं के बोझ तले,
कब तक दायित्व बस मेरा होगा? आओ अब हम साथ चलें।
मैं हार चुकी समझा-समझा कर, अपने ज्ञानी संतानों को,
अरे! अब तो कोई कदम बढ़ाओ, मेरी साँस बचाने को।
मेरी साँस बचाने को।।


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