By Nitika Aggarwal
स्वरूप
न स्त्री न पुरुष,
है मेरा भी अस्तित्व ;
अपूर्ण में भी संपूर्ण ,यही एक सतित्व ।।
क्यों करते हैं पिता रोदन,
समझ विचित्र मेरे जन्म को ;
क्यों कोसती है माता ,
अपनी कोख के इस ललन को ।।
बहती है मुझमें भी वही रक्त धारा ;
वही श्वास वही हृदय का स्पंदन, मेरे जीवन का
सहारा .
है पंचभूतों की मेरी भी किया ;
जिस में भी है एक ओंकार समाया ।।
क्यों प्रत्याड़ता है यह समाज अपने दकियानूसी
विचारों से ;
पीढियों दर पीढियों से उपेक्षित कर, घृणा हीन
भावों से ।।
क्षमता है भरपूर कर ले कसौटी एक बारी ;
सीमित न कर मनोरंजक जमूरा कट्ठपुतली
बनाकर, मेरी गुणवत्ता सारी ।।
मुझ में है बसंत का रस ,
तीव्रता नहीं ग्रीष्म और शरद की ;
अनुभव कर इस भिन्नता में भी, इस अभिन्न
की ।।
उठ कर्मठ हो ला सोच बदलाव लाने की ;
कर निरंतर प्रयास , समरूप दृष्टि से मुझे
अपनाने की ।।
सृष्टि के संतुलन की नींव हूं मैं किन्नर ;
अधूरे हैं क्या ब्रह्मा क्या विष्णु क्या गुरु बिन
अर्धनारीश्वर ।।
जान ले परमात्मा भी है मुझसा निराकार
स्वरूप;
झुठला सकता है इस आभास को देख मेरा
रूप।।