By Suyash Gaikwad
जल गया है लाक्षागृह,
समाप्त हआ वनवास,
लौटे है पांडव इंद्रप्रस्थ लेने,
करने एक अंतिम प्रयास। (1)
मिटाने भाइयों का संघर्श
शांत करने राज्य की तृष्णा,
दुर्योधन को समझाने,
शांतिदूत बने श्री कृष्णा। (2)
हस्तिनापूर सभा थी सजायी,
बैठे है महात्मा, महारथी जन,
तभी मोरपंख धारन किये,
सात्यकि संग पधारे मनमोहन। (3)
(श्री कृष्ण बोले,)
अगर ना हो सके इंद्रप्रस्थ,
दे दिजिए केवल पाँच गाँव,
स्वीकार हैं सब पांडवों को,
भूल जाएंगे सारा मनमुटाव। (4)
(दुर्योधन बोला,)
नहीं स्वीकार हैं कोई शांति या प्रस्ताव,
नहीं दूंगा कोई क्षेत्र ग्रामीण,
नहीं दूंगा उन पांडवोको,
सुई कि नोक बराबर जमीन। (5)
हे अहंकारि दुर्योधन,
कितनी लालसा भरि है तुझ मे,
क्या होगा तुझे इससे प्राप्त,
पांडवों के हातो होजाएगा,
तेरा पूरा कुरुवंश समाप्त। (6)
अभी आप शांति की भाषा कर रहे थे,
अब आप अशांति की भाषा कर रहे हो,
हमारी सभा मे खडे रहकर,
हमारे मृत्यू कि आशा कर रहे हो। (7)
नही डरता मै उन पांडवों से
ऐसा क्याहि कर लेंगे वो
जो करना है अब मै करुंगा
सैनिकों! बंधि बनालो इस ग्वाले को। (8)
हे दुर्योधन
अपने पाप के घडे मे एक और पाप भरलो,
हमे बंधि बनाने का विफल प्रयत्न भी करलो।
अब होगा तुम्हे मेरे वास्तविक रूप का बोध
अब तू देखेगा भगवान का क्रोध।(9)
(इतना कहते हि सैनिकोंने कान्हा को घेर लिया,
तभी माधव ने अपना बडा आकार किया,
सैनिक डरते डरते पीछे हटे,
जब माधव ने अपना विस्तार किया।) (10)
(अनेक मुख, अनेक भुजाएँ, अनेक शस्त्र धारन करते है,
कोटि सूर्य सम तेज जिन्हे देख ना कोई पाते है,
पीतांबर और आभुशणों से सुशोभित है जो,
प्रकट हुए ऐसे रूप मे जो सबको नही दिखलाते है।) (11)
श्रीभगवान उवाच,
हे दुर्योधन, देखले,
मैहि यह ब्रह्मांड हू और इसका आधार भी,
जिधर तक तेरी नजर जाए सबका रचनाकार भी,
इस विश्व-चराचर का मैहि एकमात्र स्वामी हू,
तीनों काल मुठ्ठी मे मेरे, मै हि अंतर्यामि हू। (12)
मै हि जगत का विनाश और मै इसका सृजन भी हू,
मैहि सबकी मृत्यू और मै सबका जीवन भी हू,
मैहि हू मिट्टी का हर एक कण,
और मै वृंदावन का गोर्वधन भी हू। (13)
मेरे पैरों के नीचे अधोलोक देख,
तू और तेरे भाईयों को जलते हुए,
मेरे मस्तक के ऊपर देवलोक देख,
कल्पवृक्ष को खिलते हुए। (14)
बारह अदित्य, ग्यारह रूद्र, त्रिदेवी, त्रिदेव मुझमे समाते है,
अष्ठ वसु, दो अश्विनी कुमार मुझसे हि जनम पाते है,
सप्तऋषि,चार सनत कुमार और दशावतार मुझमे पाए जाते हैं,
यक्ष और गंधर्व भी मुझमेसे हि प्रकट हो जाते है। (15)
जीवन कि आस हू,
पांडवों का प्रयास भी
धर्म का विश्वास हू,
और मनुष्य की अंतिम श्वास भी। (16)
मार्ग हू मै, लक्ष्य भी
साक्षी भी हू और साक्ष्य भी मै
आरंभ हू और प्रलय भी
सागर भी हू और हिमालय भी मै। (17)
मैहि सर्वत्र विद्द्यमान हू,
मैहि भक्तों की भक्ति हू,
सूर्य से भी अधिक प्रकाशमान हू,
मैहि सनातन शक्ति हू। (18)
बुद्धिमान की बुद्धि,
और बलवान का बल भी हू,
दानवीर का दान
और छलिए का छल भी हू। (19)
ऋषियों मे मै नारद हू,
मैहि समय हू और सदा शाश्वत हू,
मंत्र जाप और ध्वनियों मे ओंकार हू,
ग्रंथों मे वेद और श्रीमद भागवत हू। (20)
अर्थवान हू, मै मोक्षवान,
ज्ञानवान हू, मै विज्ञानवान हू,
कर्मवान हू, मै धर्मवान,
दयनिधान हू, मै परम भगवान। (21)
इतना समझानेपर भी नही मानी तूने,
हमारा कोई प्रस्ताव या संधी,
दुश्ट दुर्योधन यदि साहस है तुझमे,
तो बनाले मुझे बंधी। (22)
(अब माधव उसे, भविष्य दिखा रहे है)
देख यह जमीन कितनी सूनी है,
यह कुरुक्षेत्र कि रणभूमि है,
देख तुम लोगोंके मृत शरीर है वो,
पहचान सकता है तो पहचानले खुदको। (23)
अब सुनले मेरा आखरी निर्णय,
कुरुवंश पर अब आएगा प्रलय,
नही हो गा शांति या क्षमा का दान,
छूटेंगे अब तुम सबके प्राण। (24)
अब होगा महाभारत का युद्ध,
होगा एक भीषण संग्राम,
अब जाओगे तुम सब नर्क,
सीधा यमराज के धाम। (25)
थे सभा मे सब डरे हुए,
चुप थे या थे मरे पडे,
केवल 3 लोग (पितामह, द्रोण और विदुर) थे होश मे,
यहि थे हाथ जोडे खडे। (26)