मां और मलबा – Delhi Poetry Slam

मां और मलबा

By Sushma Saxena

मां बना लेती है खाना,
कहीं भी जला लेती है चूल्हा

शहर के गंदे नाले के पक्के किनारे पर,
सड़क के बगल में धूल भरी पगडंडी पर।..
रेल पटरियों की गिट्टी पर,
या किसी टपकते छज्जे से थोड़ा इधर- उधर खिसक कर।

पका लेती है ,गरम  दाल , चावल ,रोटी , सब्ज़ी...
परोस देती है बच्चों को....
खा लेते हैं लगन से रुच-रुच के अपनी-अपनी थाली......
और मां रोज़ की तरह ही भावविहीन पर इत्मिनान से,
बैठी चूल्हे के पास ज़मीन पर,
घुटनों को बांह  में समेटे,
कभी हथेलियों में चेहरा टिकाये....
देखती रहती है शून्य में,
मन ही मन अगले वक़्त की तैयारी की सोचती....
मां बना लेती है खाना,
अपने तोड़े गये घर के मलबे के ढेर पर  बैठ कर भी ....
मां बना लेती है खाना..
और भर लेती है पेट बच्चों का ....
टूटे हुए घर का मलबा -
मां को तोड़ नहीं पाता..... 

मां बना लेती है खाना ,
कहीं भी जला लेती है चूल्हा


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