By Sushant Yadav
ये कलियुग की महाभारत,
जिसमें अर्जुन भी मैं हूँ, कर्ण भी मैं,
युधिष्ठिर भी मुझमें हैं, दुर्योधन भी मुझमें।
भीम का बल भी, दुःशासन का छल भी,
भीष्म की प्रतिज्ञा भी,
द्रोणाचार्य की गुरु दक्षिणा भी-
सब मुझमें ही हैं।
क्योंकि ये कलियुग की महाभारत है।
गांधारी का श्राप भी,
धृतराष्ट्र का अभिशाप भी-
सब मुझे ही भोगना।
कलियुग की महाभारत में,
कुरुक्षेत्र यत्र तत्र सर्वत्र है,
जिसमें जीत भी मेरी है और हार भी मेरी।
अच्छाई भी मैं हूँ और बुराई भी।
केशव को सारथी बनाने,
अर्जुन-सी शालीनता भी है,
दुर्योधन-सा घमंड भी।
इस कलियुग की महाभारत में,
सारथी केशव के आदेश पर
खुद से युद्ध तय है।
जीवन रूपी युद्धभूमि पर
होते न जाने कितने प्राण निछावर।
माया के चक्रव्यूह में,
अपनों के छल से अभिमन्यु हर पल परास्त होते।
नैतिकता घुट-घुट कर मरती।
पितामह, गुरु, कर्ण के ख़ातिर,
केशव के आदेश पर
मुझे मुझसे ही छल करने पड़ते।
कलियुग की महाभारत में,
ईमान ही विजय पथ है।
स्वर्ग भी यहीं से है, नर्क भी यहीं पे है।
वो जब बैठा है हृदय में सारथी बन,
तो कलियुग की महाभारत में-
‘सत्यम’ अजीत है।
Words which express the heart and devotion of a man can truly be expressed. How Kalayug can be presented in such metaphorical way, is excellent. Will love to hear and see more of it.
It’s rare to express such Poignance that doesn’t overpower the delicate beauty of itself anyway. Keep writing. Keep up the good work.