षट्कोणीय तीन पैसे का सिक्का – Delhi Poetry Slam

षट्कोणीय तीन पैसे का सिक्का

By Sunit Bala


तुमसे मेरे बाबस्ता होने की
जाने क्या वजह मान बैठी हो तुम
तभी 'परित्याग ' किया ना तुमने मेरा?
ये चश्मा तुम्हारी आँखों पर कैसे,
 कब चढ़ा या किसने चढ़ाया
ये भी रहस्य बनाए हुए हो तुम
जानने की मुझे भी कोई गरज नहीं
उससे फ़र्क भी क्या पडने वाला है
पर 'तुम ' जैसी तर्कशील शख़्सियत ने
एक बार भी मुझसे इस बाबत
पूछने की जरूरत नहीं समझी
एक दम पक्के रूप में विश्वास
 कर लिया उस पर जो 'सच '  नहीं है
खुद को दुःख दे रही हो कि
क्यों नहीं देख पाई वो हक़ीक़त
अपनी पहचानने की क्षमता पर
सशंकित हो, दुःखी हो
तुम जैती सक्षम कैसे धोखा खा
सकती हो, मान क्यों नहीं लेती?
अपनी क्षमताओं पर शक़ करके
क्यों पश्चात्ताप में जला रही हो खुद को ?

ख़ुद सा पीडित पा के जुड़ गए थे
हृदय के तार तुमसे
जब पहली बार अपने 'बचपन ' की पीडा
बयां की ली संस्थान में
 हम रूममेट्स के समक्ष,तुम साहसी ने
कितनी पारदर्शी हो तुम, पहली बार
 जान, बाबस्ता हो गया था तुमसे मन
कितनी गहरी होती हैं ये बचपन की
'गन्दे ' लोगों की दी हुई पीडाएँ
जो .कभी धुंधली ही नहीं होती
इतनी उम्र बीत जाने केबाद भी
एकदम तरो ताज़ा रहती हैं 
छलनी करती रहती हैं अन्तर्मन को
सालते रहते हैं वो जख़्म
'टीस ' उठती रहती है उनमें
वो जख़्म जो दिखा नहीं पाया किसी को
या कभी दिखाने की कोशिश भी की तो
परवाह ही नहीं हुई किसी को
गम्भीरता ही नहीं समझी गई मेरी पीडाओं की
तुम को  ख़ुद सा पीडित पाकर
हृदय के किसी कोने में आस जगी थी
तुमसे व्यक्त हो, मरहम लगा पाऊँ
अपनो जख़्मों पर
पर चाहते हुए भी नहीं हो सका ये मुझसे
जब देखा कि लम्बी क़तार है
तुमसे अपना दु: खड़ा रोने वालों की
कितनी संवेदनशीलता और अपनेपन से भरी हो तुम
जाना था मैंने
तभी तो अपना अन्तर्मन और उसके भीतर की पीडा
तुमसे व्यक्त कर पाते हैं वो
तुम्हारे हृदय पर अपनी पीडाओं का
 और बोझ डालना नहीं चाहा
और फिर तुम जैसा साहस भी नहीं है ना मुझमें
खुदको व्यक्त करने का '

वो जो पहली घटना घटी थी मेरे साथ
सही सही तो नहीं पता
पर तीन - चार बरस की उम्र रही होगी तब
पडोस  कमरे में साथ का किराएदार था कोई
अलीगढवासी, आज भी नहीं भूला मुझे
उसके गृहनगर का नाम
गहरी पीडाओं की गहरी यादें कभी नहीं भूलती
यूं.ही खेलने गए मुझ अबोध को
बुला लिया था अपने कमरे में
और 'बाद ' में एक षट्कोणीय तीन पैसे का सिक्का
थमा दिया था मेरी नन्हीं हथेली पर
किसी को भी न बताने की हिदायत के साथ
अश्रुधारा प्रवाहित है अविरल पूरे समय
ये सब काग़ज़ पर उतारते हुए ।

बस आत्मिक है मेरा तुमसे जुड़ाव ।
मेरे स्नेह, मेरी ममता, मेरे प्यार की
पवित्रता गहराई और ऊँचाई को नहीं भाँप पाई तुम
'अनभिज्ञ ' तुम इसे 'दैहिक ' कामुकता
 से प्रेरित समझ बैठी कदाचित्
वरना मुझे पूरा यकीं है
तुम 'वैसा ' तो नहीं करती
जैसा कररही हो मेरे साथ
'हेय ' मानकर मुझे,
और ""यह तो महज एक प्रथम घटना
 का ज़िक्र किया है
इनकी लम्बी श्रृंखला रही है
जख़्म खाए हैं उनसे अधिक
जिन पर 'रक्षक ' होने का 'दायित्व ' था
जिनसे बचकर भागने का
मार्ग भी बन्द था
मुझ अबोध का।
फरियाद भी अनसुनी रह गई
जाने कितना विष पीता रहा
इतना कि जिसकी कल्पना
से व्यथित भयभीत तुम मुझसे भागी हो
मैं उसमें सक्षम ही नही रहा जीवन में कभी
क्या जग में कोई इस बात पर
यकीं कर पाएगा ?
इतने लम्बे जीवन में
दैहिक सुख का 'कतरा ' भी
 नहीं आया हिस्से मेरे
पर 'सच ' तो ' सच ' है
मुझे पता है, मैंने भोगा है
अब भी उसके After effects को
झेल रहा हूँ जैसे
तुम्हें खो देने के रूप में ।

कब जगेगी बाबा ए .नागराज के दर्शन की लौ
जो फैल जाएगी जग में सारे दावानल की तरह
और जला देगी सारी कुत्सितताओं को
जब न होंगे ' मुझ ' जैसे ' बचपन .
अपने 'रक्षकों ' के भक्षण के शिकार
मूल्य - चरित्र - नैतिकता से
परिपूर्ण होगा हर मानव जब
न होगा किसी मानव में
छुपी अमानवीयता का शिकार
कोई निरीह बचपन
मुझे अभागे की तरह....।


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