माँ – Delhi Poetry Slam

माँ

By Sunil Kumar Zadoo 

माँ
आज फ़िर कहीं दूर 
करहाने की आवाज़ सुनकर 
मैं चौंका ॥

अनायास ही मन में, ये ख्याल आया 
हो न हो ये वही 
उम्र से पहले बुढ़ी हुई 
मेरी मातृ-भाषा हिन्दी है॥ 

दौड़ कर पहुँचा 
और पुछा 
माँ!
इतने थपेडे खाती हुई 
अपने ही घर में 
तिरस्कार सहती 
अब भी ज़िन्दा हो॥ 

करोड़ों बच्चों की माँ होकर 
तुम्हें देखने वाला 
पूछने वाला 
कोई नहीं ॥

बोली 
न बेटा 
अभी भी मेरे 
कुछ बच्चे 
मुझे आसरा देकर 
ज़िन्दा रखने के अथक प्रयास में 
लगे हैं 
तभी तो ज़िन्दा हूँ मैं॥

अब तो मन में बस 
लिये इक यही आस 
उस नई सुबह के इन्तज़ार में॥ 

कि शायद 
मेरे भटके बच्चे 
अपनी इस 
अभागी माँ की याद 
दिल में बसा लें॥ 
क्योंकि! 
माँ तो आख़िर 
माँ ही होती है॥


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