हिसाब चुकाना पड़ता है – Delhi Poetry Slam

हिसाब चुकाना पड़ता है

By Suman Narula

हर्जाना भरना पड़ता है,
आज नहीं तो कल,
हिसाब चुकाना पड़ता है ।

हरित इस धरा को ,
बंजर जो तूने बना दिया।
हरण जो किया सौंदर्य का,
हर्जाना भरना पड़ता है ।

दर्प- मद में लीन रहकर,
हरेक को तुच्छ जाना सदैव।
पी रक्त पिपासा शांत की,
हिसाब चुकाना पड़ता है ।

था जो मूक, व्यक्त न
कर सका जो पीड़ा अपनी,
पीड़ित कर सुख पाया जो तूने,
हर्जाना भरना पड़ता है ।

भू से पा आश्रय जब,
उसे मलिन कर तुझे ,
हर्ज इसमें न नज़र आया,
हिसाब चुकाना पड़ता है ।

हरकतों से तेरी शर्मसार ,
मानवता जब बार-बार हुई।
उस वीभत्स अट्टहास का,
हिसाब देना पड़ता है ।

कर्मों का लेखा-जोखा,
उस लेखाकार के पास।
कुकृत्यों के चक्रव्यूह का
हिसाब चुकाना पड़ता है।

हर्जाना भरना पड़ता है।
आज नहीं तो कल
हिसाब चुकाना पड़ता है।


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