By Sudhanshu Bala Nanda
आज तो वसंत है !
कानों में धीरे से सुगबुगा रही है
ये उन्मत्त बयार,
और बता रही है-
रति और कामदेव का प्रेम अनंत है।
आज तो वसंत है !
तो यही वसंत है! और बस अंत है-
अंत! किसका? आज तो वसंत है।
यही तो है वो वसंत, जिसकी बाट जोहते कल
हम पीते रहे तपते, सुलगते पल।
चलती रही मन में आँधियाँ, लिए धूल भरी ग़लतफ़हमियाँ,
और कुम्हलाते रहे मन-
जैसे झुलसती उदास वादियाँ।
फिर बरसती रहीं बरबस बूँदें
लिए बरसाती मायूसियाँ,
तोड़कर बाँध भरती रहीं नीर इन आँखों में,
जब भर गईं दर्द से नदियाँ।
कंपकंपाते रहे ठिठुरी हुई रातों में,
रगों में जब बहती थी बस
ठंडी सिकुड़ी-सी सिहरन और
उमँगों की दीवारों पर लगती रही उदासी की सीलन।
बर्फ़ाती थी चेतनाएँ और शून्य जम गए थे अंतर्मन।
झड़ते रहे स्वप्न पत्तों से रातभर,
और सुबह को झाँकता था मन-एक ठूँठ बन।
तो क्या अब जो है वसंत, आया है लेकर इन सबका अंत?
क्या अब धूप बस गुनगुनाएगी मीठी कुनमुनी लोरी-सी
और सहला देगी प्यासे तन-मन
छलका कर सोंधी-सी ख़ुशबू कोरी-सी?
क्या बरसेगा मेह, भर देगा ठंडी-सी लरज चहुँ ओर,
और महकेंगी हवाएँ खुनक भरी, जब बौराएँगे भौंर?
हाँ, अंत में तो निहित है अर्थ वसंत का-
अंत जब हो झूठे दर्प और घमंड की दाह का,
अंत जब हो कड़वे बोलों और दुखती आह का।
छँटने लगे घृणा और स्वार्थ का कोहरा,
और बरसे जब स्नेह की निश्छल धारा।
रुके जब सपनों का टूटकर बिखर जाना,
और सिमटते रिश्तों का ठंडा हो जाना।
लाँघकर जब देह की देहरी को कोई छू सके अंतस,
खिले चेहरे पर वासंती हँसी बरबस,
नाच उठे जब मन मयूर बिन देखे बादल और फुहार,
गाए बिन ढोलक-मंजीरा- होरी और मल्हार।
हाँ, बंधा नहीं होता वसंत बस पंछी के कलरव और फूलों के पराग में,
हवाओं की सुगंध और कामदेव के राग में।
ख़ुशी के हर पल में और उमंग के हर क्षण में वसंत है-
दुखों की पतझड़ और आशंका की सिहरन का अंत हो तो वसंत है।
आक्रोश की आग और निराशा की बरसात का अंत हो तो वसंत है।
आज तो वसंत है-आज तो वसंत है!!