By Soumya Singh

क्या विवशता होगी मेरी, जब सूरज भी धुंधलाएगा,
प्रबल प्रकृति के दृढ़ नियम को, कोई ठुकरा पाएगा?
जब पर्वत झुकेगा धरा पर, और नदियाँ रुक जाएँगी,
तब जाकर शायद पीड़ा मेरी, जग के मन को भाएगी।
क्या विवशता होगी मेरी, जब शब्द मौन बन जाएँ,
और अंतर की अग्नि बिना ज्वाला, धधक-धधक भर जाए?
जब हर भाव निरर्थक ठहरे, छाया शून्य बिखर जाए,
तब संभव है, कोई पीड़ा को, मेरा सत्य समझ पाए।
जब नभ पर चंद्र उजाला छोड़, तम को आलिंगन देगा,
जब कचनार की शाखों से भी, मकरंद विलग हो लेगा।
जब मधुकर गीत विराम करेंगे, रस भी नीरस हो जाएगा,
तब शायद, मेरा मौन, एक स्वर बन कर कुछ कह जाएगा।
जब दीप जले पर तेल नहीं, बाती स्वयं ही बुझ जाए,
जब साज़ बजे पर स्वर न बहे, राग अधूरा रह जाए।
जब अंतर्मन भी थक जाए, और दृष्टि धूमिल हो जाए,
तब यह जग मेरे बंधनों का, उत्तर शायद दे पाए।
क्या विवशता होगी मेरी, जो कर्मविवश कर डाले,
जब संकल्प भी मुरझा जाएं, और आशा सिसक-सिसक डाले।
पर ऐसे क्षणों में भी मन, साहस का बीज बोता है,
क्योंकि विवशता वही, जो पथ से भटका ना होता है।
जैसे वज्र की चोटों से, शिल्प सुन्दर आकार पाते,
वैसे ही ये दुःख, विवशताएँ, नायकों को उकेर जाते।
ह्रदय भले ही टूटे पलभर, पर मन दृढ़ हो जाता है,
जो सह लेता मौन वेदना, वही युगों तक गाता है।
तो क्या विवशता होगी मेरी, जब मैं स्वयं शिव बन जाऊँ,
विष पीकर भी अमृत मन में, संकल्पों का दीप जलाऊँ।
मेरा मौन ही बोलेगा फिर, नव सृजन की भाषा में,
जहाँ विवशता न होगी मेरी, बस विजय होगी आशा में।