सन्नाटा – Delhi Poetry Slam

सन्नाटा

By Smriti Ganvir

मै सन्नाटा। 
मै सन्नाटा। 
सदियों से, 
खामोश रहा।

अपनी खामोशी संग,
खुद ही बातें करता।

कितना सहज मै,
कितना सरल मै।
फिर भी अकेला।

दूर-दूर तक,
ना कोई शोर,
ना कोलाहल।

हर तरफ
सन्नाटा है पसरा।

मेरी ख़ामोशी,
हर बात है कहती।
तुम समझ सको।

पर तुमने मुझको,
बांध है रखा
वीरानों में, खंडहरों में।

और संग नाता
जोड़ है रखा,
डर से, खौफ से।

मै तन्हा,
दिन हो या रात,
अनवरत जाग रहा।

सन्नाटे मे,
दूर से आती,
मेंढको की आवाज़,
घोर अंधियारे मे,
जुगनुओं की चमक,
हवा की सरसराहट से,
पत्तो का हिल जाना।

बरसों से खड़े,
मेरे आँगन में,
विशालकाय वृक्षों पर,
उल्लुओं का,
भूत-प्रेतो का पहरा।

उबड़-खाबड़ ज़मीन पर,
रेंगते विषाक्त सरीसृप,
इनका डेरा,
मुझे और भयावह बनाते।

राह भटके जो मुसाफिर,
मेरे घेरे तक है आते,
भय की दस्तक ,
कांँप है जाते,
उल्टे पांव लौट है जाते।

कभी अचानक,
कदमों की आहट,
एकांतवास की आस,
थामे हाथों मे हाथ,
एक दूजे को निहारते।

मदमस्त प्रेमागोश मे,
बेखबर मेरी पहचान से
कुछ क्षण ही सही,
मेरे संग बिताते।

मुझे मेरे,
अकेले ना होने का,
एहसास है कराते।

मेरे वजूद को,
जिंदा है रखते।
 
मेरे वजूद को,
जिंदा है रखते।।


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