प्रेम नाटिका – Delhi Poetry Slam

प्रेम नाटिका

By S P Singh Satyarthi

लौट आये
तुमने रोका नहीं
आश्वस्त थी
खुश्बु पर मलकियत कैसी
ढूँढना था प्रेम
निश्चित लौटोगे
विस्तारित हो घनीभूत बन

प्रेमी होना घटना है
फूल खिलें महकें
वर्षों तक
तब बसंत कितना लम्बा होगा?

फूलों को कौन प्रेम करता है
कोई भी नहीं
सब चाहते हैं तोड़ना
भंवरे भी नहीं
भंवरे तो आदमी होते हैं
उन्हे प्रेमी होना होता है

तुमने फूलों को देखा
कैसे हँसते हैं
वे कुछ भी नहीं कर सकते सिवा इसके

आदमी फूल कैसे बने?
बहे नदियों हवाओं सा
उन्मुक्त हो

प्रेमी होना क्या है
ठहरना

आदमी ठहरता क्यों नहीं
मांगता है
मांग विस्थापन है
अतिरेक है सीमाओं का

मिली वो
प्रतीक्षा में थी

पिछले साल जब माघ मे ग्रहण लगा था
तब तुम उसके आलिंगन मे थे
और जब सावन मे सुखा पड़ा
तुम उसके केश सँवारते थे
वो कजरी गाती थी
और फिर भादौ बरसा
पूरे माह

जानती हो
उसके यहाँ से कोई प्रेमी नहीं लौटता
उड़ते पंछी
टंगे रह जाते हैं क्षितिज में
ध्यानस्थ

उसने जंगल को कहा
और वह फूलों से भर गया
नदी को पुकारा
और वह रुक गई
तितलियाँ मोर पपीहे
उससे बतियाते हैं

हम जंगल की तलहटी तक उतरे
उसने टपकती झार मे पैर धोये
हमने झरनों को देखा बादल होते

वह जब प्रेम करती है
तो देह विहीन हो जाती है
प्रेम आवरण नहीं रखता
प्रेमी होने को देह मिटानी होती है

तुम हुए?

उसने कहा
जब तुम अगली बार आओगे
तो तुम भी पुरुष न रहोगे
सारी कायनात होगी मेरे जैसी

पुरुषों का स्त्रियाँ होना कैसा होता होगा

उस रात बिजली कड़की
और उसकी सुनहरी लड़ियाँ
किरचा किरचा बिखर गईं थीं आंगन मे
तब वो तुमसे क्या कहती थी
बताऊंगा कभी
ऐसी ही घुप निशा मे

जब तुम आ रहे थे तब क्या कहा
सिर्फ हँस दी थी
मैं भी
उसने रोना सिखाया लिपटकर
कहती थी सारी सृष्टि रोती हैं हँसते हँसते
कोई अनंत यूँ ही होता है

एक रात उसने बताया मेरे बारे मे
जो मुझे नहीं पता
जैसे तुम जानती हो फूलों के बारे मे
सब कुछ

दीपक बुझने को
तुम कर पाओगी इतना सब कुछ
तुम सिखाना
तुम स्त्री होना जानते हो

चलो सो जाओ


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