आज फिर से मन "काशी" सा है – Delhi Poetry Slam

आज फिर से मन "काशी" सा है

By Shweta Khare

आज फिर से मन काशी सा है                                                                                                          चंचल जैसे गंगा की लहरें,                                                                                                            मदमस्त जैसे उसपर नौका तैरे,
कुछ उलझी हुई सी उन गलियों की तरह,
कुछ सुलझी हुई सी घाट की सीढ़ियों की तरह,
जाने क्यूँ आज मन संक्रांति की पतंग सा है,
आज फिर से मन काशी सा है।


शर्मीली जैसे नववधू की मुस्कान,
सिंदूरी जैसे वहां की साँझ,
कुछ बिखरी हुई उन बनारसी मोतियों की तरह,
कुछ सिमटी हुई उस गुलाबी मीनाकारी की तरह,
जाने क्यूँ आज मन उस घुँघरू की धुन सा है,
आज फिर से मन काशी सा है।

 
ज्वलंत जैसे कभी ना थमने वाली चिता की आग,
अनंत शांत जैसे मणिकर्णिका घाट,
कुछ बहता हुआ जलकर जल में राख की तरह,
कुछ रुकता हुआ चले जाने वाले की याद की तरह,
जाने क्यूँ मन आज विश्वनाथ सा है,
आज फिर से मन काशी सा है।

 
सजीली जैसे बनारसी साड़ी पर चांदी के धागे,
सुगंध जैसे मलय पवन अस्सी घाट पर भागे ,
कुछ सीख से भरी कबीर के दोहों की तरह,
कुछ राम नाम को जपती चैती की तरह,
जाने क्यूँ मन आज बिस्मिल्लाह की शहनाई सा है,
आज फिर से मन काशी सा है ।


कुछ संध्या की गंगा आरती सा,
कुछ मंत्रों की प्रतिध्वनि सा,
आज मन है ठुमरी सा, आज मन है महावर सा,
आज मन है सारनाथ सा, आज मन है मोक्ष सा विमोक्ष सा,
जाने क्यूँ आज मन अविनाशी सा है,
जाने क्यूँ आज मन काशी सा हैं ।


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