By Shubhra Singh
अब तक ना थीं आँखें खुलीं,
पर मन ने दिल की सुन थी ली,
और छोड़ कर नींदों का सुख,
मैं चल पड़ी थी पहचानी गली ।
थी उस गली के मोड़ पर,
रास्ते के बस उस छोर पर,
एक डोर थी खींचें मुझे,
मैं बन हवा उड़ती गयी।
पहुँची मैं जब मंज़िल तले,
उल्फ़त ज़रा कुछ बढ़ गयी,
समझी थी मंज़िल मैं जिसे,
वो तो नशे सी चढ़ गयी ।
आए नज़र फिर रंग यूँ,
सोचा कभी चिड़िया बनूँ ।
पत्तों से टपकूँ घूम कर,
सूरज से कर लूँ गुफ़्तगू ।
फुदकूँ गिलहरी बन कभी,
तितली से कर लूँ दोस्ती।
जी लूँ ये पल सारे सभी,
चुस्की में बस एक चाय की ।
थे बज रहे सिर्फ़ साढ़े आठ पर ज़िंदगी चख़ ली थी आज।
इस याद के काँधे पे सर रखकर गुज़रते अब दिन और रात।