By Shubham Singh

मुश्किल राह पर चलने की मैंने थी ठानी,
राज तिलक की थी तैयारी|
राह पर हुई मुझसे कई भूल,
हालात भी नहीं थे अनुकूल|
समय ने ऐसे स्थान पर छोड़ा,
मंजिल लगने लगी बड़ी दूर|
खुद को नकारा समझता था,
दूसरो को देख कर जलता था|
मन मैं थे अनेक सवाल,
परंतु नहीं मिले मुझे जवाब|
असफ़लता से डरा था मन मेरा,
समझ नहीं पाया किधर जाऊँ कि मिले सवेरा|
पहुँच नहीं पाया अपनी मंजिल पर,
परंतु अब मैंने इस सत्य को जाना,
मंजिल नहीं यह मार्ग ही है असल खज़ाना|
जाना मैंने नहीं कोई इस जग में नकारा,
देखने वाले की दृष्टि में है दोष सारा|
केवल मंजिल पा लेने से कोई बड़ा नहीं हो जाता है,
मंजिल से दूर रह जाने से कोई छोटा नहीं रह जाता है|
खुद से करता हूं बस यही सवाल,
क्या हूं मैं आगे के लिए तैयार?
क्या हूं मैं आगे के लिए तैयार?