By Shrikant Bourasia
देकर दुहाई धर्म की,
लेते बेजुबानों की जान ।
क्या हम हैं इंसान ?
करके बातें आज़ादी की,
करते कैद परिंदों की उड़ान ।
क्या हम हैं इंसान ?
कमाकर हर जगह मुनाफा,
ढूंढते मुफ्त का सामान ।
क्या हम हैं इंसान ?
खोले बिन तिजोरी दिल की,
चाहते बनना धनवान ।
क्या हम हैं इंसान ?
बढ़ाकर संबंध परायों से,
करते अपनों का अपमान ।
क्या हम हैं इंसान ?
विदा कर सबको अपने दर से,
बनते बिन बुलाए मेहमान ।
क्या हम हैं इंसान ?
करके मातम अगल-बगल में,
खाते मेवे और मिष्ठान ।
क्या हम हैं इंसान ?
दबाकर राज़ सारे अपने,
लगाते दूसरों में कान ।
क्या हम हैं इंसान ?
बनाकर तिल का ताड़,
लेते हाथों में तीर-कमान ।
क्या हम हैं इंसान ?
कुचलकर सैकड़ों सरों को,
बनाते अपनी पहचान ।
क्या हम हैं इंसान ?
छिपाकर हर सच को,
करते झूठ का गुणगान ।
क्या हम हैं इंसान ?
भरकर व्यभिचार तन-मन में,
जपते मुख से भगवान ।
क्या हम हैं इंसान ?
लगाकर अंकुश दिमाग पर,
करते अर्जित ज्ञान ।
क्या हम हैं इंसान ?
फंसकर भंवर में अतीत के,
बैठते भूल वर्तमान ।
क्या हम हैं इंसान ?
पढ़कर पोथी दुनिया भर की,
रहते खुद से ही अंजान ।
क्या हम हैं इंसान ?
समाकर खूबियां इतनी सारी,
कहते खुद को महान ।
क्या हम हैं इंसान ?