एक कमरा और – Delhi Poetry Slam

एक कमरा और

By Shourya 

 एक ऐसी मंज़र 
 पर आकर खड़ा हूँ मैं 
 जहाँ घर तो है
 और कमरे भी 
 उन कमरों में लोग भी
 मगर उन लोगों से 
 कुछ दूर खड़ा हूँ मैं 
 
 कैसी-सी , किसी दुनियाँ में 
 अलग थलग सा 
 केवल चल रहा हूँ मैं 
 कहाँ जाना है ? पता है
 कब तक चलना है ? पता नहीं 
 
 अक्सर पाँव दुखते हैं मेरे 
 रुक जाने का मन करता है
 अगर रुका तो पहुंचूंगा नहीं 
 मगर हर बार ऊपर देखता हूँ 
 तो और दूर चला जाता हूँ मैं 
 किस से ? पता है 
 कितना ? पता नहीं 
 
 उस घर की चौखट , बाहर की गली 
 उन मोहल्लों के लोगों को 
 काफ़ी भूल गया हूँ मैं 
 
 एक अलग दुनियाँ में आकर 
 बस गया हूँ मैं 
 क्योंकि
 वो लोग अपने थे 
 मकान अपना था 
 मगर उस घर में 
 एक कमरा कम था 


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