By Shourya

एक ऐसी मंज़र
पर आकर खड़ा हूँ मैं
जहाँ घर तो है
और कमरे भी
उन कमरों में लोग भी
मगर उन लोगों से
कुछ दूर खड़ा हूँ मैं
कैसी-सी , किसी दुनियाँ में
अलग थलग सा
केवल चल रहा हूँ मैं
कहाँ जाना है ? पता है
कब तक चलना है ? पता नहीं
अक्सर पाँव दुखते हैं मेरे
रुक जाने का मन करता है
अगर रुका तो पहुंचूंगा नहीं
मगर हर बार ऊपर देखता हूँ
तो और दूर चला जाता हूँ मैं
किस से ? पता है
कितना ? पता नहीं
उस घर की चौखट , बाहर की गली
उन मोहल्लों के लोगों को
काफ़ी भूल गया हूँ मैं
एक अलग दुनियाँ में आकर
बस गया हूँ मैं
क्योंकि
वो लोग अपने थे
मकान अपना था
मगर उस घर में
एक कमरा कम था