By Dr Shivangi Tiwari
अभिमान है पुरुषार्थ का
और पुरूष का सम्मान है,
खड़ी मौन इक नारी का
यह ज्ञान ही अभिशाप है।
पूजते जिस नारी को,
हैं शक्ति के इक रूप में
है सौम्य जिसकी चेतना, और
त्याग जिसका मान है।
है छांव शीतल सी कभी,
कभी प्रेम का संचार है,
पर है खड़ी इक छोर पे!
क्या ये उसका सम्मान है ?
पुरुष के इक रूप को
है विश्व में हम पूजते ,
मानते महादेव को, और
महादेवी को है भूलते।
धूप में खिलती नही
वह छांव में पलती सदा,
यह पुण्य उसके जन्म का
क्या,पाप का आधार है ?
वह जन्मती इस खोज में
है, प्रकृति को पुकारती
मंदिरों में है मगर,
वह घरों में है झांकती,
छवि उसकी मोहक है
आभूषणों का श्रृंगार है,
है सीत सी दृढ़ ढाल वो
फिर क्यों ,खड़ी चुप चाप है ?
है यज्ञ की वह साधना
और आहुति उसका ताप है,
जन्मती अग्नि से वह
वह द्रौपदी, एक आग है।
बनती काली वो कभी
कभी गौरी उसका नाम है,
जानते सभी, हैं जगत मे
पर फिर भी वे अंजान है।
इतिहास है वह काल का
और सृष्टि का संचार है,
है बंधी, स्वयं इक जाल में
क्या ये वरदान ही ,अभिशाप है?
अच्छी और सुन्दर अभिव्यक्ति।