Shikha Lahiri – Delhi Poetry Slam

Kab aayega Gudiya-Muniya ka basta

By Shikha Lahiri

कभी-कभी चाहतों को
पंख नहीं मिलते,
कभी पंख मिलते हैं मगर
हौसले नहीं मिलते।
कभी सब कुछ होते हुए,
ज़िंदगी नहीं मिलती।
कभी मुफ़लिसी में भी,
है ज़िंदगी बसती।

शायद उसकी नज़र में
मैं एक परी थी।
मेरे घर के सामने,
सड़क के उस पार,
एक झोपड़े के द्वार पर खड़ी थी।

मैं एक बच्ची थी और वह भी,
मेरी हमउम्र शायद।
स्कूल आते-जाते,
हमेशा वहीं दिखती खड़ी।
हसरतों से ताकती,
एक फ्राक पहने,
शायद ही तन ढांके।

धीरे-धीरे नज़रें मिलीं,
होंठों पर मुस्कान खिली,
और फिर हाथ हिले।
बन गई वह मेरी हमजोली-सहोली।

पूँछा एक दिन:
"तेरा नाम क्या है?"
"गुड़िया," कहा उसने।
"स्कूल नहीं जाती?"
चमकती हुई आँखों से बोली,
"हाँ, जाऊँगी अगले महीने,
माँ बस्ता लाकर देगी।"

पर शायद वह अगला महीना
कभी नहीं आया।
खड़ी रही और हाथ हिलाया।
आँखों की वह चमक खो गई,
बच्ची से किशोर बन गई।

एक दिन कुछ अजब हो गया।
सर पर लाल चूनर डाले,
होंठों पर मुस्कान खिली थी,
आँखों में चमक नई थी,
हाथ हिलाते खड़ी हुई थी।
उसका लगन हो चुका था,
और वो विदा हो गई,
मेरी सहेली जुदा हो गई।

थोड़े दिन सूना-सूना था सब,
नज़रें उसको ढूंढती रहीं।
ज़िंदगी की आपा-धापी,
भुला दिया गुड़िया, बस्ता, सब।

बीत गए कुछ और सावन,
कितने बीते, पता नहीं अब।
बन गई मैं आज की नारी,
डूब गई अपने जीवन में।

एक सुबह जब घर से निकली,
हाथ हिलाते ये कौन खड़ी है?
गुड़िया जैसी लग रही वह,
सूनी आँखें, मौन होंठ हैं।
हाथ थामे एक छोटी बच्ची,
उसके पीछे छुप रही है।

ब्रेक लग गए गाड़ी में मेरे,
पास आकर रुक गई मैं।
दिल पूछ रहा था कितने ही प्रश्न,
पर ज़ुबां जैसे चिपक गई थी।

उसने सिर्फ़ बोला मुझसे:
"अगले महीने मुनिया का बस्ता
लाऊँगी जरूर।"
और हाथ हिलाकर चली गई थी।

मैं गुमसुम-चुपचाप खड़ी थी।
सोच रही थी—
आख़िर कब आएगा गुड़िया-मुनिया का बस्ता?


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