सनातन संताप – Delhi Poetry Slam

सनातन संताप

By Shekhar Vats

मैं भारत भूमि निवासी, धर्म सनातन विश्वासी हूँ।

युगों युगों से यहाँ बसा हूँ, नहीं आप्रवासी हूँ।

दुनिया की सबसे पहली संस्कृति का न्यासी हूँ।

सबसे पहला योगी, सबसे पहला सन्यासी हूँ।

‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का मैं शाश्वत अभिलाषी हूँ।

ग्रन्थ गढ़े संस्कृत में मैंने, वैसे बहुभाषी हूँ।

आस्था जिसकी जैसी थी मैंने स्वीकार किया है।

मानव हो या दानव हो, सबका उद्धार किया है।

बदले युग, बदले शासक, पर जीवित सदा रहा मैं।

हुआ पराजित, मगर, नहीं दुश्मन का चरण गहा मैं।

क्या ये मेरा दोष हुआ, क्यों हर प्रतिकूल सहा मैं?

बहा ले गया बली काल सब को, क्यों नहीं बहा मैं?

उठीं उँगलियाँ मुझ पर, मति संकीर्ण हुई क्यों तेरी?

नभ में कीच न फेंक, गिरेगी तुझ पर ही ये ढेरी।

 

क्या तुझको इतिहास बताऊँ, निज अतीत दिखलाऊँ?

बड़ी गहन है, बड़ी अकथ, सामर्थ्य कहाँ से लाऊं?

शेष धरा पर मनुज सभ्यता जन्म न ले पाई थी;

बस्ती भी आदिम मानव ने अपनी नहीं बसाई थी;

उसी काल में हमने था ईश्वर से आँख मिलाया।

ईश्वर ने निज मुख हमको था मुक्ति मार्ग दिखलाया।

विश्व हमारे पास ज्ञान पाने को तब आता था।

नहीं रचे इतिहास, हमें रचना पुराण आता था।

जब गिनती की सीमा बस उँगलियाँ हुआ करती थी,

शून्य सृजित कर हमने यह गिनती असीम कर दी थी।

जब जीवों का माँस मात्र, आहार हुआ करता था;

जीवित रहने का हिंसा ही आधार हुआ करता था;

नर की शाकाहार प्रकृति को हमने पहचाना था।

अन्न, शाक, फल के भोजन को ही उत्तम माना था।

तब धरती पर कृषि की विद्या विकसित हो पाई थी।

जग में फिर ग्रामीण सभ्यता आकृति ले पायी थी।

प्रेम पुकार प्रकृति की हमने सुन कर मनन किया था।

अंतर के ओंकार शाश्वत ध्वनि का श्रवण किया था।

मूर्त, अमूर्त दोनों का क्रमश: पूजन, यजन किया था।

कृषि और ऋषि आधारित संस्कृति का सृजन किया था।

आदिम अंधविश्वासों का हमने जाल काट डाला था।

सत्य और असत्य मध्य का धुंध छाँट डाला था।

कर्म और फल का सिद्धांत जगत में हम लाए थे।

पुनर्जन्म की विचारणा में समाधान सब पाए थे।

ज्ञान और विज्ञान सतत उत्पन्न यहाँ होते थे।

बॉंट कर इसे हम तो सदा प्रसन्न  यहाँ होते थे।

शक्ति, पराक्रम और शौर्य में रहे सदा उन्नत थे।

मगर सदा ही ज्ञान और करुणा के आगे नत थे।

सहिष्णुता का पाठ जगत को हमने ही सिखलाया।

गुण जिसमें भी पड़ा दिखाई, उसको था अपनाया।

परिष्कार का सब को ही अवसर प्रदान किया था।

दंड पराजित को न दिया था, क्षमा दान दिया था।

विडम्बना फिर घटित हुई कुछ ऐसी अभागिनी थी।

दया, क्षमा की अति करना भी अति विनाशकारिणी थी।

जिसको सोलह बार क्षमा कर वापस श्वास दिया था;

उसी कुटिल ने जीवनदाता को संत्रास दिया था।

कृतघ्नता का ऐसा नग्न न तांडव देखा जग ने।

इसके बाद लगी अनवरत दुर्घटनाएँ घटने।

यह मेरी रणनीतिक त्रुटि थी, अरि को समझ न पाया।

नहीं किया अपराध, किसी पर कोई ज़ुल्म न ढाया।

कपट और छल का साया क्रमश: छाया अंबर में।

टूटा शासक पर विश्वास, स्वार्थ भरा सब के अंतर में।

मेरी ही संतानें तब से छलती आयी मुझको।

पीड़ादायक मुझको कहती और प्रताड़ित खुद को।

अंग काटकर मेरा, मुझ पर ही आरोप लगाती।

तार तार कर संस्कृति को, नित नाटक नव दिखलाती।

मुझसे होकर अलग, अलग हैं झंडे जो लहराते,

मुझको ही अलगाववाद का दोषी फिर ठहराते।

धर्मस्थल मेरा खंडित कर सहिष्णुता सिखलाते।

सर्व धर्म सम भाव सिखाया किसने, ये न बताते!

करें घृणा जो अन्य मतों से, मत निरपेक्ष कहाते।

करें सभी को जो स्वीकार,  साम्प्रदायिक कहलाते।

क्रूर और संकीर्ण बुद्धि पर ठप्पा उदारवादी।

वसुधा को जो कुटुम्ब मानें, कहलाएँ अपराधी।

करूँ कहाँ तक प्रायश्चित्त, कहाँ तक और सहूँ मैं?

सत्य सनातन संतति हूँ, कब तक यूँ मौन रहूँ मैं?

हा दुर्मति, तूने रच डाली कैसी हेरा फेरी!

नभ में फेंका कीच, गिरेगी अब तुझ पर ये ढेरी।

 

सुख समृद्धि की आशा हो यदि शेष तुम्हारे अंदर!

संभलो और सुधर जाओ, है समझो अंतिम अवसर।

अपना सब अपराध तुझे स्वीकार करना होगा।

आगे कोई न हो कुकर्म, करार करना होगा।

भूल जाओ लाहौर, आगरा या शिमला समझौता।

भूल जाओ कश्मीर, खुदकुशी को मत दो अब न्यौता।

पिछली सब सदियों का तुझको हिसाब देना होगा।

सारे काँटे वापस लेकर गुलाब देना होगा।

सोमनाथ का ध्वंस, दंश बन, तुझको डसने वाला।

तुझ पर, लूटा सोना, बन चट्टान, बरसने वाला।

क्या कीमत तुम दोगे नालंदा के विद्यालय का?

पूछ रहा है सदियों से जल रहा आग ह्रदय का।

वह अकूत भण्डार ज्ञान का कैसे वापस दोगे?

छात्रों की निर्मम हत्या का क्या प्रतिकार करोगे?

गो़री के अपराधों का क्या प्रायश्चित्त करोगे?

सिक्ख गुरु के सिर के बदले कितना दंड भरोगे?

बंदा बैरागी का है बलिदान खड़ा रस्ते में।

है कोई औकात तुम्हारी, छूट सको सस्ते में?

चलो जरा इतिहास खोल कर तेरा मैं दिखलाऊँ!

किन किन का तू अपराधी है सबसे तुझे मिलाऊँ!

देख, हजारों इज्ज़तदार नारियाँ करतीं जौहर।

निष्कलंक वे मरीं, जिया पर गुनाहगार तू होकर।

मर्म धर्म का समझ न पाया तू अंधा अपराधी।

चरण धूल जिनका लेना था उनपर ज़जिया लादी।

जिस मिट्टी ने दिया सहारा तुझे बनाकर मेहमाँ!

गाली दी काफिर कह उसको, तू कैसा बे-ईमाँ?

नूर खुदा का खुदा हुआ था जिस पत्थर के ऊपर;

मिला न पाया नज़र, खुदा को कर डाला तू बेघर।

किये इमारत वीराँ, बना खुदाबंदों का कातिल।

ध्वस्त किये कितने ढाँचे, तोड़े कितने मुस्तकबिल!

माँ के जैसा प्यार भरा था जिन आँखों के अंदर;

दूध पिया जिसका, उसका रख डाला गोश्त बनाकर।

कितने अस्मत लूटे थे, कितनों का मज़हब छीना!

मुल्क तोड़ कर, कितनों का दुश्वार कर दिया जीना!

लड़कर के आज़ाद कराया जिस धरती को हमने;

दो से उसको तीन कर दिया तेरे इसी सितम ने।

ये हैं महज नमूने तेरी बेगैरत फितरत के।

जारी हैं करतूत आज भी तेरे वहशियत के।

खून बहाना, बेगुनाह लोगों का, दरिंदगी है।

फि़दायीन हो मरने, मिलती नहीं ये जिंदगी है।

फिर भी ग़र तू उतावला है अपनी ही करने को;

हो जाओ तैयार, गँवा कर अपना सब, मरने को।

तेरे सब गुनाह, मौत बन, तुझे खड़े हैं घेरे।

तेरे सभी कमीनेपन हथियार बने अब मेरे।

तेरी भाषा में तुझसे अब बात किया जाएगा।

तेरे अस्त्रों से तुझपर ही घात किया जाएगा।

जिन मुल्कों से तुमने गलतफहमियाँ पाल रखी हैं;

तुम पर महज बिछाकर, खुदगर्जी की जाल रखी हैं।

तेरे बुरे वक्त में कोई काम नहीं आएगा।

अल्लाह भी तेरा अब मल्लाह न बन पायेगा।

आस तुझे है जिन हूरों की, तुझसे मिलवा देंगे।

धरती के जन्नत को तुझसे निज़ात दिलवा देंगे।

फुस्स फटाका कर देंगे हम तेरे ऐटम बम का।

शोर सुनाई देगा तुझको केवल हर हर बम का।

होगा अंतिम युद्ध, आखरी होगी अब रणभेरी।

कल तक जो तेरी जमीन थी, कल से होगी मेरी।

तुझे मुबारक तेरे हिस्से के मलबे की ढेरी;

बियाबान, बर्बाद फि़जा़एँ, रातें घुप्प अंधेरी।


2 comments

  • This is just nonsense. The print is full of mistakes. It can not be posted like this. Please edit it as original or get it done by me.

    Shekhar Vats
  • आपको कंप्यूटर पर टाइप किए हुए स्पष्ट स्क्रिप्ट भेजे गए थे, पर आपने ये क्या बकवास पोस्ट किया है। क्या प्रतियोगिता इतने अक्षम लोग संचालित करते हैं। इसको हमसे एडिट कर सही करवाइये या स्वयं करिए। ऐसा भद्दा मजाक आप नहीं कर सकते।

    शेखर वत्स

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