थका पथिक – Delhi Poetry Slam

थका पथिक

By Shatakshi Mishra

सबकी अभिलाषा टूटी है जीवन के किसी किनारे पर,
न समझो खुद को अकेला तुम, न नाव टिकी है सहारे पर।
तुम नहीं अकेले इस पथ पर, जो कोशिश कर के टूटा है,
अनन्य मनु बिखरे बैठे, जिनका सपना यूँ छूटा है।

जब कोशिश करके कोटि-कोटि, तुम होरे बैठे कोने में,
आत्मग्लानि से सकुचित मन को सुख मिलता जब रोने में।
सरोबार हिय जब न फटे, दुख मन का और भी गहरा हो,
फिर स्वप्न दूर लगे प्रतिपल, और अंधकार का पहरा हो।

जब धीमी-धीमी बुझती लौ, ज्वाला को ठण्डक पहुंचाए,
और स्वयं-नाश को प्रथम चरण, सम्मुख प्रतिबिंबित हो जाए।
तब नहीं भागना छुपने को, न अपना दुख ही दिखाना,
अपने बिखरे सपनों के अवशेषों को उठाना।

न कहना किसी को कुछ भी तुम—क्यों तुम हारे, क्यों टूट गए,
क्यों स्वप्नपूर्ण घट रमणीय एक झटके में ही फूट गए।
यदि रोना जो आ जाए तो, बहना देना आँसू को,
न करना कैद इन्हें हिय में, न देना इन्हें जिज्ञासू को।

क्योंकि आँसू एक बूंद में ही असंख्य कहानी कहता है,
जो पाठक उत्तम मिला उसे, ये स्वयं कहानी कहता है।
रो चुके? संतृप्ति मिली? उठो और मुख धोओ,
एक फसल हुई बर्बाद तो क्या? एक नई फसल तुम बोओ।

देखो प्रवाहमान नदिया, जो कलकल करके बहती है,
प्रवाह को हासिल करने में, क्या नीचे नहीं उतरती है?
देखो बादल घने असंख्य—ये भी तो नीचे गिरते हैं,
बन वर्षा आ धरती पर, घर खुशहाली से भरते हैं।

देखो यह नया उगा पौधा—यह किसी समय में बीज था,
कैसा परिवर्तन छाया, ये पुलकित हुआ जो बीज था।
परिवर्तन, विघटन, जीत-हार—जीवन के अप्रिथक संगी हैं,
सब जाने पर भी साथ रहें, चाहे जितनी भी तंगी है।

तो इन संगियों के साथ को पाकर, काहे का दुख रोना?
और यदि साथ अधिक ही मिले, तब क्यों विवेक को खोना?
जब जन्म हुआ तब तुम इनके संग पहले से ही व्याहे थे,
साथ का जब एहसास हुआ, तब दुखी भला यूँ काहे थे?

तो मुस्काओ प्रिय, मुस्काओ—तुम अभी भी नहीं हारे हो,
बस परिवर्तन के कारण तुम जीवन के एक किनारे हो।


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