By Sharad Chandra
अलकनंदा सी
हूँ निश्चल निर्मल
भागीरथी सी भी
हूँ शोख़ चंचल
और दोनों के संगम
से है मेरा उद्गम
शिखर से उतर
सागर से जा मिली हूँ
मैं गंगा नदी हूँ !
विषधर की जटा
पे हूँ मैं अलंकृत
मैं हूँ पावनी
मेरा जल है अमृत
इसी जल से पूजन
अनुष्ठान फलते
इसी जल से अगिन
शहर गाँव हैं पलते
मेरे जल से
जीवन-मरण से है मुक्ति
मैं आस्था तुम्हारी
तुम्हारी सती हूँ
मैं गंगा नदी हूँ ।
इतिहास को देखा है
बनते बिगड़ते
समय को
समय पर
करवट बदलते
देखा
युगों से,
सनातन का विघटन
सभ्यताएं
मिटते देखीं
संस्कार
घुटते देखे
और
बड़े कष्ट से देखा
धरम का पतन
पर ना देखा है
इंसान को
इतना नराधम
तुम्हारे
पाप धो धो के
मैं मैली हो चली हूँ
मैं गंगा नदी हूँ !
चिरंतन से
झूठे घमंड के नशे में
मेरे वेग को बाँधा है
कभी अपने बल से
कभी तुमने अपने
ज़रा सुख की खातिर
भोगा है मुझको
शठता से छल से
मैं माँ हूँ तुम्हारी
सींचा है मैंने
तुम्हें अपने जल से
सजल बह …निरंतर
सितम सब सही हूँ
मैं गंगा नदी हूँ ।