गहरा अंधेरा – Delhi Poetry Slam

गहरा अंधेरा

By Shalvi Pathania

वासना के तले न जाने कितने दिल पले
खता वस्त्र की नहीं जो कई रंगों में ढले,
वो तो दिमक थे जो कई पोषाकें खोखले कर चले,
औरत हूं मैं, शायद यही मेरी खता है,
एक रात में क्या कुछ बदल जाता है; किसे कहां पता है,
जो भी ग़लत हुआ; उसे कभी चरित्र से जोड़ा गया,
कभी पोशाकों में मोड़ा गया,
खता नही देखी खतावारों की,
मार कर भी मुझे बार -२ जोड़ा गया,
हर बार एक नया किस्सा बनके रह जाती हूं,
कुछ दिन छपती हूं अखबारों में,
कभी शमा बनके रह जाती हूं।
कभी भरोसे का शिकार बनती हूं,
तो कभी यूं ही निशाना बन जाती हूं।
मगर शिकार मगर का कोई नहीं करता,
कोसते हैं सब मच्छली को; मगर पर किसी का बस नहीं चलता,
एक दिन ऐसा आएगा कोई होगा जो नया इतिहास बनाएगा,
कुच्ले जाएंगे ऐसे सर्पों के सर,
कि खतावार हर पल अपनी मां को जरूर बुलाएगा,
फिर संहार कर उसी की ही जननी,
फिर संसार उन्हें सही मातृ रूप बताएगा।


1 comment

  • Thank you 🙏

    Shalvi Pathania

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