दौर–ए–ज़िंदगी – Delhi Poetry Slam

दौर–ए–ज़िंदगी

By Shaheen Khan


कोई तो उन चिट्ठियों का दौर लौटा दो,
अपनापन, सादगी और बचपन का शोर लौटा दो ।
वो चाय की चुस्की से पूरी होने वाली रूहानी शाम,
वो सुकून भरी भोर लौटा दो ।

यूं बेसब्री से डाकिए की राह ताकना,
अनजान होकर भी वो लगता था जैसे हो कोई अपना ।
आखिर वही तो था मसीहा उस ज़माने में,
क्या ख़ूब भूमिका निभाता था वो दिलों के पैगाम पहुंचाने में।

हर एक हर्फ में पढ़ने वाले की बोली सुनाई देती थी,
आखिरी पन्ने तक आकर आँखें नम हो जाया करती थीं।
एक कागज़ का टुकड़ा बेटी को उसके मायके के करीब ला देता था,
हर आशिक के मोहब्बत-ए-इज़हार को हसीन बना देता था
यूं कहने को फासले थे मगर फिर भी कही पास थे हम,
मीलों दूर होकर भी एक दूसरे के साथ थे हम।।
कोई तो फिर उन चिट्ठियों का दौर लौटा दो, अपनापन, सादगी और बचपन का शोर लौटा दो।

आज संसाधन तो बहुत हैं, पर दिखावे का रिवाज हैं।
मौसम से भी तेज बदल रहा ये अपना समाज हैं । सुख में सब साथ हैं पर दुःख में वो भीड़ नहीं,
जो थोड़े सच्चे रिश्ते बचे हैं, कहीं हम उसके आखिरी पीढ़ी तो नहीं ?
सफ़ेद वस्त्र धारण करते ही क्या दुःख व्यक्त होता हैं?
क्या कैमरे के समक्ष ही आज हर इंसान खुश होता हैं?
लम्हों को जीना ज़रूरी हैं या फिर उन्हें तस्वीरों में कैद करना?
या सबसे जरूरी हैं उन लम्हों की पेशकश करना ?
वो बिगड़ी हुई तस्वीर आज भी एल्बम में खास हैं,
आज एक अच्छी तस्वीर के लिए न जाने होते कितने प्रयास हैं।।

लोगों के भीड़ में होकर भी क्यों आज अकेला हैं इंसान,
खुद की खूबसूरती से क्यों वो हो रहा हैं अंजान ? दुनिया को जानने से पहले आइए खुद को जान जाए हम
तराश कर इस हीरे को, बना ले हम अपनी पहचान।

जब इंसान अपने अक्स को पहचान जाएगा,
तभी जाकर वो रिश्तों के जड़ों को सींच पायेगा।
शुक्र हैं आज भी माता-पिता का प्रेम हमारे प्रति निस्वार्थ हैं।
बस अंतिम यात्रा के लिए उन चार कंधों की तलाश हैं ।।


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