By Seema Jain

बनारस की धरती
धूल से स्वागत करती है..
बिल्कुल वैसे, जैसे कोई बूढ़ा बाबा
प्यारी सी झिड़की के साथ आशीर्वाद देता है।
सड़कें..
टेढ़ी, भीगी, थकी हुई, पर ज़िंदा थीं।
हर मोड़ पर रहस्य फुसफुसाता मिला,
हर भीड़ के चेहरे में छिपा था कोई अनकहा अफ़साना।
चौराहे पर भिखारी नहीं,
कहानी माँगते बच्चे खड़े थे,
जो हर सिक्के के साथ एक अधूरी दुआ भी देते थे।
गौदोलिया से दशाश्वमेध तक चलते-चलते,
समझ आया..
यहाँ दिशा कोई संकेतक नहीं तय करता,
यहाँ रास्ते इशारे से नहीं, दिल से चुने जाते हैं।
भीड़,
जो बाहर से शोर लगती थी,
धीरे-धीरे कानों में गाती हुई उतरती थी।
यहाँ सबका समय अलग है,
यहाँ सब समय से परे हैं।
एक साधु ने चुपके से कहा..
"घाट तक मत दौड़ो बेटा,
घाट खुद आ जाएगा
जब तुम्हारे भीतर उतर जाएगी नदी।"
तब जाना..
बनारस की सड़कें सिर्फ़ रास्ते नहीं,
यह आत्मा की परतें हैं,
जहाँ हर धूल कण में कोई कथा अटकी है।
कहीं एक बुज़ुर्ग अपनी टूटी चप्पल के साथ
गंगा की ओर बढ़ रहा था,
कहीं कोई विद्यार्थी झोले में सपना और नोट्स समेटे,
मंदिर की घंटी के नीचे से निकल रहा था।
भीड़ अब बोझ नहीं लगती थी,
वह तो बन गई थी एक प्रवाह..
जैसे गंगा की धार
जिसमें सब बहते थे
अपने-अपने विश्वास, अपने-अपने मोह के साथ।
शाम को घाट पर बैठकर,
जब आरती की लहरियाँ उठीं,
तब लगा..
बनारस को देखने नहीं आई थी मैं,
बनारस को सुनने आई थी।
और बनारस..
कानों से नहीं,
आत्मा से सुना जाता है।
“दिल्ली पोयट्री स्लैम " को मैं हृदय से आभार एवं धन्यवाद व्यक्त करती हूं कि आपने मेरी कविता का चयन किया एवं मेरी रचना धर्मिता को सम्मान प्रदान किया।