By Satya Deo Pathak

गर्भ में अपने ,
एक नन्हीं सी जान छुपाए,
एक दोपहर लेटी हुई बिस्तर पर।
महसूस करती एक नन्हीं जान को,
उसके एहसास को।
हाथ फेरती गर्भ पर अपने,
गाती है लोरी।
अचानक फक्क पड़ गया उसका चेहरा,
सोच में हो गई व्याकुल।
जेहन में गूंजे,
उसके पति की आवाज़।
" कल तुमको करानी होगी जांच"।
"है जो लड़की कोख में तेरे,
कर देना होगा उसको साफ़।"
"नहीं जरूरत लड़की की मुझको,
याद रहे भूले ना तुमको।"
सोचती रही, रोती रही,
आ रहा था ना कुछ भी समझ।
अचानक उसने सुनी एक आवाज़,
देखने लगी इधर उधर,
समझ ना पाई राज़।
"मां ! मैं हूं तेरी बिटिया,
तेरी कोख से मैं हूं बोलूं।"
क्या तुम मिटा दोगी अस्तित्व मेरा?
क्यूंकि लड़की हूं मैं !
आने से पहले इस धरती पर,
कर दोगी तुम मेरा नाश?
पर मां, पूछूं इतनी सी बात,
क्या नहीं है ऐसा मुझ जैसी बेटी में?
जो दुनिया को बस बेटों से आस।
अगर कोई समझे बोझ मुझे,
समझे मुझको जिम्मेदारी।
बतला दूं मैं उसको मां,
मैं हूं लक्ष्मी उसके घर की,
मेरे पूजन की कर ले तैयारी।
मां, बेटी, बहु, बहन कितने ही रूप मेरे !
पुरुष समाज ये हमने ही तो जने।
मुझको आना है दुनिया में मां,
मैं हूं बेटी, इसमें मेरा क्या गुनाह?
आवाज हुई एकाएक है ओझल,
द्रवित, दुःखी, सजल सोच में मन।
कैसे मार सकूं मैं?
अपने कलेजे के टुकड़े को।
सोच विचार असमंजस का हाल।
अचानक आया दृढ़ता का भाव,
सोच लिया, ये ठान लिया,
" लेगी जनम बेटी मेरी,
प्रण ये मैने आज लिया।"
हक़ है हर बेटी को दुनिया में आने का।
है दरकार केवल जो रौशनी दिखाने को,
तैयार हूँ मैं पहला दीपक जलाने को।
हुई जो बेटी गर्भ में मेरे,
होगा उसका इंसाफ।
जितना भी चाहें लड़ना हो,
मुझको इस दुनिया से।
जन्म मैं दूंगी बिटिया को।
जन्म मैं दूंगी बिटिया को।