बाज़ार-ए-जिस्म-ओ-जज़्बात – Delhi Poetry Slam

बाज़ार-ए-जिस्म-ओ-जज़्बात

By Satendra Sharma

 

हैं फ़रोश-ए-जिस्म और ज़ज्बात की मंडी सजीं,
जिस्म और ज़ज्बात हैं बाज़ार में सब दिख रहे,
दौर-ए-नुमाइश है यहाँ पुरज़ोर ये चारों तरफ़,
हर तरफ़ हर मोल में इस मुल्क में सब बिक रहे l

है ख़रीदारों की ने'मत इसलिए इस मुल्क़ में,
हर तरफ़ बाज़ार और बिकने के हासिल दिख रहे,
अब यहाँ हर आदमी मशगूल है व्यापार में,
और ये हुनर बेचने के भी यहाँ अब बिक रहे l

जल्वा-ए-जिस्म-ओ-लिबास रोज़गार-ए-आम है,
सौदा-ए-शक़्लों बिना पर लोग किस्मत लिख रहे,
रूह अब ख़ामोश है इस देह के व्यापार में,
रूह के नामों निशाँ अब तन-बदन से मिट रहे l

इस बड़े बाज़ार में ज़ज्बात के भी मोल हैं,
रूप हर ज़ज्बात के बाज़ार में अब दिख रहे,
ग़ुर्बत-ओ-मज़हब की मांगों का यहाँ पुरज़ोर है,
जिस्म के दामों में ये ज़ज्बात भी अब बिक रहे l

मा'रूफ़ अब मसरूफ़ हैं कारोबार-ए-फ़ैज़ में,
दौलत-ए-ज़ज्बात के सब लाभ उनको दिख रहे,
दफ़्न होगी रूह तो बाज़ार पसरेगा यहाँ,
जिस्म और ज़ज्बात बेचे या खरीदे जाएंगे,
बंद-ओ-बस्त-ए-ग़ुर्बत-ए-आवाम सारे दिख रहे l


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