By Sanshruti Jain
मासूम सी उम्मीदों का हो एक आशियाना,
ख्वाबों से कहीं परे हो, खुशियों का खजाना ।
दिलों में आस नहीं, प्यार बेशुमार हो,
दूसरों से पहले करता, खुद से दुर्व्यवहार हो ।।
भौतिकों को पार कर, चाह सिर्फ़ इतनी हो,
शान हो या हो शोहरत, पर उम्र मां-बाप जितनी हो ।
एहसास भी न हो छिपा, किन्हीं एहसानो में,
दूर हो ये सब, किन्हीं पैमानों से ।।
पेड़ की छांव में, बैठे कोई मुसाफ़िर अगर,
चल पड़े फ़िर किसी ओर, तय करने को सफ़र ।
बहते दरिया की कश्ती का, जो नाविक सहारा हो,
सबको पार लगाता हो, उसका भी कोई किनारा हो ।।
निर्धन होकर भी, जो निर्दयता से वंचित हो,
चेहरे से पढ़ले आंसू, शिष्टों में वो अंकित हो ।
वक्त रहे जहां, मुट्ठी से बेहतर अपनों के बीच,
दुख हो जितने भी, लें पल भर में सींच ।।
जख्मों को कोई, नासूर बनने से बचा ले,
मरहम में सहेजकर, गले से लगा ले।
शरारतें हों बेहिसाब, पर न हो साजिशें,
प्रेम की ओट में, झुक जाए सारी रंजिशें ।।
कोई वृक्ष झेल पाए ना अगर, पत्तियों का भार,
हो सूखी शिराओं का प्रत्यक्ष फ़िर इज़हार ।
बर्बाद हो, न किसी अपने के अलगाव से,
खुद को बदलना न पड़े, किसी ठहराव से ।।
आगाज़ हो हर नए दिन का, एक मुस्कान से,
हो मददगार हर कोई, अपनी पहचान से।
चलो उठ जाऊं, ना हो जाए अब देरी,
पर यहीं सीमित सपनों की दुनिया है मेरी ।।