By Sanchita Bajaj
ये जो लाशों के ढेर हैं शहर में,
हमारी ग़फलतें भड़क रही हैं,
पिंजरों का अंबार ना समझना इनको,
हमारी कबाहत सुलग रही है।
कहीं मुरादें हुई हैं भट्टी,
कहीं किलकारियां सिसक रही हैं,
किसी का माज़ी फ़ना हुआ है,
कहीं उम्मीदें धुआं हुई हैं।
कहीं उल्फ़त को लगी चिंगारी,
कहीं ख्वाब अधूरे सहम गए हैं,
मंज़िले मकसूद करने वालों को
मंज़िल आख़िरी मिल गई है…
ये जो लाशों के ढेर हैं, शहर में…
कुछ ग़मगीनियों के भी थे साये,
कुछ गिले-शिकवे भी तमाम हुए हैं,
कहीं तहरीरें ढूंढती हैं मिसरे,
कहीं साज़ बेसुरे हो गए हैं।
रिस रही है कायनात सारी,
अयान-ए-क़ुदरत चल रही है
ये जो लाशों के ढेर हैं, शहर में…
हमारी वहशत का है अलामत,
ख़ुदाई जंजीरों में तड़प रही है।
चिरागों की रौशनी है नुक़्ता भर की,
सियाही का सैलाब उमड़ रही है।
कहीं सूद-ओ-ज़ियाँ की है सफ़्फ़ाक़ी,
कहीं शातिर सियासत की मैसेबियाँ हैं,
रफ़ाक़त कर ले, तौबा अब भी,
कि तेरी नस्लें उजड़ रही हैं।
1 CARELESSNESS/NEGLIGENCE, 2 SKELETONS, 3 PILE, 4 DEFECTS 5 WHO ACHIEVE GOALS, 6 GIFT OF GOD, 7 SIGN/MARK, 8 DOT, 9 PROFIT & LOSS, 10 TYRANNY, 11 MISERIES, 12 SOCIETY
