By Samia Aftab

छोटा सा था,
जब पहली बार तू मेरी गोद में आया था।
तेरा मुस्कुराता चेहरा देखकर,
मेरा दर्द कहाँ ग़ायब हो गया -
मुझे पता ही ना चला।
तुझे बड़ा करते-करते
कब ये ज़िंदगी गुज़र गई,
पता ही ना चला।
तू अब बड़ा हो गया है।
तेरा प्यार…
मेरे लिए शायद कम हो गया है।
मेरी बातें अब तुझे चुभने लगी हैं।
मेरी मार तुझे ये सोचने पर मजबूर कर देती है
कि शायद मैं तुझसे प्यार नहीं करती।
मेरी डाँट...
तुझे मुझसे नफ़रत करने पर मजबूर कर देती है।
है ना?
हाँ — तेरा जवाब "हाँ" ही होगा।
पर...
रात भर तेरी फ़िक्र में जागना,
तेरे बुखार में तेरे सिरहाने बैठकर
तेरे माथे पर अपना हाथ रखना-
क्या ये मेरा प्यार नहीं?
तुझे चोट लगे तो
तेरी चोट पर मरहम लगाना,
तू जब खाना न खाने की ज़िद करे
तो तेरे आगे-पीछे भागना-
क्या ये मेरा प्यार नहीं?
तू जो माँगे, उसे लाकर देना,
तेरी हर ज़िद को पूरा करना -
क्या ये मेरा प्यार नहीं?
तू कहता है-
"माँ, आपने किया ही क्या है मेरे लिए?"
"किस त्याग की बात करती हो?"
त्याग?
इस शब्द का मतलब मैं शायद नहीं जानती,
वैसे भी मैंने किया ही क्या है...
बस...
नौ महीने तुझे पेट में रखा है।
तेरे लिए रातों को जागी हूँ,
सुबह-सुबह उठकर तेरे लिए टिफ़िन बनाया है।
तेरे पसंदीदा पकवान बनाते हुए हाथ जलाए हैं,
तुझे चोट लगी तो आँसू ही तो बहाए हैं-
और मैंने किया ही क्या है?
बेटा...
तेरे बिना बताए तेरी परेशानी को समझ जाना,
जब भूख हम दोनों को लगी हो,
और मैं कह दूँ-
"मेरा पेट भर गया है,"
ताकि वो आख़िरी रोटी तुझे दे सकूँ-
क्या ये मेरा प्यार नहीं?
...क्या ये मेरा प्यार नहीं?