By Sakhi Bansal
मैं स्वयम् का ही बीता हुआ कालखंड हूँ,
स्वयं का ही आगत क्षण हूँ,
मैं था, मैं हूँ, मैं रहूँगा,
मैं ही खंडित भी हूँ, मैं अखंड हूँ।
मैं कर्म हूँ, और कर्मों का फल हूँ,
मैं उलझन हूँ, और हर उलझन का हल हूँ,
मैं धुरी भी हूँ, धरा भी हूँ,
मैं शून्यता से भरा भी हूँ।
मैं सृष्टि का पहला अंश हूँ,
मैं इक्ष्वाकु का वंश हूँ,
मैं अस्तित्व हूँ, मैं सत्य भी,
मैं मिथ्या हूँ, मैं तथ्य भी।
मैं आस हूँ, उदास हूँ,
मैं प्रथम - अंतिम श्वास हूँ,
मैं विलास, मैं सन्यास हूँ,
भविष्य और इतिहास हूँ।
मैं तपस्वी की तपस्या,
दीपावली की अमावस्या,
मैं डमरू हूँ, मैं शंख हूँ,
गंगाधर का नीला कंठ हूँ।
मैं कविता का अपूर्ण छंद हूँ,
मिट्टी की सोंधी सुगंध हूँ,
सदियों की स्मृति हूँ मैं,
विनाश, पालन, कृति हूँ मैं।
मैं पासा और द्युत क्रीड़ा भी हूँ,
हर्ष और पीड़ा भी हूँ,
मित्र भी हूँ, शत्रु भी हूँ,
जीवन हूँ, मृत्यु भी हूँ।
मैं अधरों पे ठहरा गीत हूँ,
मैं राधा की आधी प्रीत हूँ,
मैं बांसुरी की स्वर में हूँ,
नारी हूँ मैं, मैं नर में हूँ।
मैं कृष्ण हूँ, मैं राम हूँ,
बलराम और हनुमान हूँ,
अमृत भी मैं, और विष भी मैं,
ब्रह्मा भी मैं, और शिव भी मैं।
मैं चंद्र, सूर्य, मेघ हूँ,
प्रकाश का मैं वेग हूँ,
अग्नि भी हूँ, और जल भी हूँ,
कीचड़ भी हूँ, कमल भी हूँ।
ग्वाला भी मैं, गैया भी मैं,
कान्हा भी मैं, मैया भी मैं,
मैं नंद बाबा का लाल हूँ,
हर कंस का मैं काल हूँ।
मैं कैलाश हूँ, काशी हूँ मैं,
मैं वन हूँ, वनवासी हूँ मैं,
मैं सीता की अग्नि परीक्षा हूँ,
मैं चौदह वर्ष की प्रतीक्षा हूँ।
मैं चार धाम की यात्रा,
मैं वर्ण, विसर्ग, मात्रा,
अर्जुन का मैं ब्रह्मास्त्र हूँ,
चारों वेद, समस्त शास्त्र हूँ।
मैं शांति हूँ, मैं युद्ध हूँ,
मैं मलिन हूँ, मैं शुद्ध हूँ,
मैं गूंज, गुंजन, गर्जना,
महावीर मैं, मैं बुद्ध हूँ।
मैं पुण्य हूँ, मैं पाप हूँ,
वरदान हूँ, मैं श्राप हूँ,
मैं चक्रव्यूह में हूँ फँसा,
वो चक्र जो रण में धँसा।
संघर्ष हूँ, विराम भी,
प्रारंभ हूँ, परिणाम भी,
मैं सृजन और रचयिता हूँ,
मैं परास्त और विजेता हूँ।
मैं मौन हूँ, ध्वनि भी हूँ,
निर्धन हूँ मैं, धनी भी हूँ,
धूप भी, छाया भी हूँ,
मोह और माया भी हूँ।
मैं सन्नाटा हूँ, मैं शब्द हूँ,
मैं सर्वज्ञ हूँ, मैं स्तब्ध हूँ,
मैं अनंत हूँ, मैं अद्वैत हूँ—
मैं एक हूँ, मैं अनेक हूँ।