By Sabita Langkam
स्टेशन के क़रीब चाय की टपरी थी
लगभग हर शाम
एक बिस्कुट मैं और एक तुम
अपनी अपनी गिलास में डुबोते हुए बतियाते थे
याद है सब
कुछ भी भूली नहीं हूँ
गंगा किनारे पहली बार तुम्हारे ही साथ बैठी थी
दरसल जितनी बार भी बैठी तुम्हारे ही साथ बैठी
कभी तुम लड़ते कभी मैं झगड़ती
हाथों में हाथ लिए लम्हें सरियाते थे
याद है सब
कुछ भी भूली नहीं हूँ
स्कूटी पर तुम्हारे बैठकर
अहाते का चक्कर लगाई थी
धीरे धीरे फिर मैंने भी सीख ही लिया
याद है ना
तुम्हें बैठा कर गली गली घूमी थी
स्कूटी किसी पेड़ से टिका कर
चोरों की तरह जामुन और काजू फल हथियाते थे
याद है सब
कुछ भी भूली नहीं हूँ