By Rushik Gurlani
"मैं शायद कभी एक किताब लिखूं,"
"ये मेरी किताब है" उसका नाम रखूं।
हर पन्ने में कोई बिखरा ख्वाब लिखूं,
मेरे झूठ, फरेब, नाकामियां सरेआम लिखूं,
एक खिड़की की दरार से आती हवा को पकड़ूं,
उस हवा में उड़ता कोई बेमकसद सा जवाब लिखूं,
कोने में बैठी धूप की पुरानी सिलवटें गिनूं,
हर किरन के माथे पर जमी खाक लिखूं,
सूरज को नहीं, उसकी थकान को देखूं,
वो रात को देख छुप गया, वो राज़ बेनक़ाब लिखूं,
किसी कप से उठती भाप को कहानी बनाऊं,
हर उस चुस्की में छुपी खामोशी की आवाज़ लिखूं,
दीवार पे टंगी घड़ी से वक्त न पूछूं,
पर जो बीत गया, उसका हिसाब लिखूं,
मैं एक टूटे हुए तारे से दोस्ती करूं,
उसकी आख़िरी उड़ान का एहसास लिखूं,
कभी चुपचाप गिरती बारिश से बात करूं,
उसके गिरने से पहले के डर का बयान लिखूं,
जब शोर बहुत बढ़ जाए तो मैं चुप रहूं,
उस चूपी की परछाई का इंक़लाब लिखूं,
मिट्टी में दबे बीज से उसकी नींद पूछूं,
और उगने की जिद में छिपा जुनू लिखूं,
एक नाम को नहीं, उसकी गूंज को देखूं,
हर पुकार में चुप बैठा इन्सान लिखूं,
जिन्हें लोग मामूली कहते हैं, मैं वही उठाऊं,
एक झटके से गिरा पत्ता, उसका बयान लिखूं,
नींद के उस पल को पकड़ूं जब सपना आता है,
और नींद से भी गहरी कोई बात लिखूं,
भीड़ में एक अकेली आंख ढूंढ लूं,
और उस आंख में बहता ब्रह्मांड लिखूं।
मैं शायद कभी एक किताब लिखूं,
हर पन्ने में कोई बिखरा ख्वाब लिखूं।