By Ritika Jatana
मिलता नहीं क्यूं?
कभी दीवारों, तो कभी दरों पर पाया...
किसी की लानत में भी देखा तुझे-
"कितनी ज़रूरत थी तेरी, क्यों बुलाने पर भी न आया?"
किसी की किताब में बंद था तू,
कभी किसी बेअक़्ल की शक्ल में दिखा हर सू...
दरख़्तों पर बंधे धागों पे लटका दिखा कभी,
तो कभी फ़क़ीरों के प्यालों में पड़ा मिला।
अलग ही अंदाज़ में तुझे बुलाते हैं सभी...
कभी दुकानों की तख़्तों पे भी छपा मिला,
बहुत से हाथों पर भी छपा दिखा तेरा नाम।
अब तो लिबासों की कतरनों पर भी तू सिला...
कभी पत्थर बना दिया तुझे, तो कभी मीनार,
कभी दूध, कभी ख़ाक, अगरबत्ती का दिया।
तुझे लालच, तो कभी पहनते देखा तुझे नोटों का हार...
नुमाइश में तेरी कटी कितनी गर्दनें...
नंगे रक्स नाचे कभी तेरे नग़मों पे,
तो कभी बन गईं तेरी वजह से सरहदें...
कितने ही चलते हैं तेरे नाम पे धंधे,
एक सलीकेदार काम न किया जिन्होंने-
तेरे नाम पे कमाई करते दिखते हैं वही बंदे...
कहाँ ढूंढूं तुझे -इसमें या उसमें?
अल्लाह, ईसा, नानक या राम-जो भी है तू,
जब हर जगह मिलता है...
तो मिलता नहीं क्यूं मुझमें...?
तो मिलता नहीं क्यूं मुझमें...?
तो मिलता नहीं क्यूं मुझमें...?