By Ritesh Kumar
तुम
महफ़ूज हो
महलों के
उन चहारदीवारी के अन्दर
और
उन मजदूरों को
मजबूर बना दिया
और
छोड़ दिया
दूरियाँ नापने सड़कों पर।
घर ही तो लौटना चाहतें थे
अपने घर
अपनों के पास,
अपने रहमोकरम पर जीना चाहतें थे
इसलिए तो
चल दिये थे
सड़क नापने
अपने छोटे – छोटे बच्चों के साथ
अपने बीवी के साथ
अपने बूढ़े माँ – बाप को गोद में उठा
निकल पड़े थे
अपने आत्मसम्मान को बचाने ।
जिसके रहमोकरम पर जीते हो
हाथ जोड़े
जिसके समीप
समय – समय पर
खड़े हो जाते हो
गिड़गिड़ाते हो
भीख मांगते हो
उनसे
उनकी वोटों की
गावों में बसने वाले
यह वही मजदूर हैं ।
यह वही मजदूर हैं
जिसने देश को
अपना सब कुछ दिया है
और आज
जब उन्हे जरूरत पड़ी
तब तुमने मुंह फेर लिया ;
मैं गरीब माँ का बेटा हूँ
यही कहते थे न
और
गरीबी का
गरीबों का ही
मज़ाक उड़ा गए ।
3000 करोड़ की मूर्तियाँ बनाने का
दम भरते हो
कई लाख करोड़ रुपयों को
माफ करने के लिए
56 इंच का सीना है
परन्तु
इनके लिए तुम सोंच नहीं पाए
जिनसे तुम्हारा वजूद है
और
जब मजबूर, बेबस और लाचार
सड़कों पर
रेल की पटरियों पर
बीमारी से कम
सिस्टम की लाचारी से
दम तोड़ने लगे
तब
एक बार फिर उठ खड़े हुए
झूठी समवेदनाएं जगाने
न्यूज़ का हैड्लाइन्स बनने
गोदी मीडिया के सामने ।
मैं गरीब माँ का बेटा हूँ
इन शब्दों को उन्होने
दिल में जगह दे दी थी
किन्तु
बहुरूपिए को न समझ सके;
कितनी बार
इन मजदूरों का
कर्ज चुकाने का मौका
इस तरह आता है
परन्तु
सत्ता की भूख
सत्ता का घमंड
इंसान को हैवान बना दिया है;
कर देते न करोड़ों खर्च
कर दो न करोड़ों खर्च
इन्हीं का दिया है
इन्हीं को देना है
आज इन्हें ज़रूरत है
लौटा दो न इन्हें
चुका दो न इनका कर्ज़
जो तुम पर है ।
किन्तु नहीं
इनके जीने मरने में भी
भेदभाव करने लगे;
पहले अमीरी – गरीबी
फिर
जाति के आधार पर
और फिर
क्षेत्र के आधार पर
और
गरीब माँ का बेटा हूँ
यह कह कर
हवाई चप्पल पहनने वाले गरीबों को
हवाई यात्रा के सपने दिखा
छोड़ दिया
हवाई चप्पल से दूरियाँ नापने
सड़कों की।
उम्मीद टूटी है
सिस्टम से
सरकार से,
एहसास
उस खाई का
उस गहराई का
उस विकृत सोंच का
फिर से हो रहा है
कि
उनकी नज़र में
मैं मजदूर हूँ
सिर्फ एक मजदूर
एक इंसान नहीं
सिर्फ
एक मजदूर।