क्या एक स्थित मौसम की सबके लिए बराबर है? – Delhi Poetry Slam

क्या एक स्थित मौसम की सबके लिए बराबर है?

By Richa Yadav

घनघोर घटाएँ काली-काली,
मेघ गरजते बादल फट गए,
बिजली चमकी छम-छम-छम,
बरसा पानी रिमझिम-रिमझिम,
बरसा पानी झम-झम-झम।

है घर के अंदर जो बैठी,
उसको दृश्य निराला लगता,
मनभावन और प्यारा लगता।

आँखें कितनी तृप्त हुई हैं,
खिड़की से जो झाँक रही है,
हाथ निकाले बाहर वो,
पानी से भी खेल रही है,
गीली मिट्टी सोंधी खुशबू।

गरम हवाएँ ठंडी पड़ गईं,
छूकर उसको दूर निकल गईं,
मन को उसके हर्षित कर गईं।

अब देखो उस माँझी को,
बीच समंदर नाव फँसी है,
मानो पानी से खेल रही है,
इधर-उधर हिचकोले खाती,
पल में कितनी बार डराती।

डरने की फुरसत ही कहाँ है,
माँझी थर-थर काँप रहा है,
जान पे अपनी खेल रहा है।

घर-बच्चों की चिंता भी है,
पलक झपकते पल में क्या से क्या हो जाएगा,
पर काम में वो तल्लीन पड़ा है,
सब कुछ पीछे छोड़ चुका है।

सोचो-सोचो दूर की सोचो,
तभी आकलन करना सही कहा और गलत है क्या?
क्या एक स्थिति मौसम की सबके लिए बराबर है?
क्या इस दुनिया में जीना-खाना सबके लिए बराबर है?


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