By Ravi Bharati Gupta

जन्मों से अर्जित ज्ञान के बाद ही तो 'भैया" कुछ कह पाते हैं;
हम सब के दिल की हर बात जानते हैं, लेकिन कभी नहीं जताते हैं।
"न काहू से दोस्ती; न काहू से बैर", यही बात वो समझाते हैं;
कुछ संजोग, कुछ मनोरथ उनका; गुरु- शिष्य का रिश्ता बस निभाते हैं।
एक एक स्थान चलने से ही पूर्व- पश्चिम का लंबा रस्ता तय हो पाएगा;
पल भर कहीं भी रुक जाओ तो ख़ुद ही हाथ थाम कर आगे ले जाते हैं।
कोई बरसों के बाद भी एक एक स्थान पे बहुत पुरुषार्थ करता है।
किसी को अपनी "अहैतुकी - कृपा से; एक ही रात में "मेराज"¹ करा देते हैं।
जब जीव की "सांझ" ढलने लगती है, और मन विचारों में डूब जाता है।
तभी, वो ने:अक्षर का रथ ले कर जीव के सारथी बन जाते हैं।
मैं, यह तो नहीं कहता कि सूरज-चांद चलते हैं उनके इशारों पे;
लेकिन, कोई तो साक्षी है; वो झमाझम वर्षा को भी रुकवा देते हैं।
सब कुछ जान बूझ कर भी अनजान बने रहना तो स्वभाव है उनका;
और, कभी बिना मांगे हुए मोतियों से भरा थाल लुटा जाते है।
उनका ख्याल आते ही मन में एक उलाहना सा बन जाता है।
उनके सपने आते हैं पर न जवाब देते हैं, रूबरू भी नहीं मिल पाते हैं।
कल तक तो मैं अकीदतमंद¹ था, मुझे पता ही नहीं चल पाया;
उसने कब मुझे रोका, हाथ थामा; अपने करीब बिठाया।
मुंतशिर² था मैं मुद्दत से, कई सालों की लंबी जद्दोजहद³ के बाद से।
मुंतज़िर⁴ भी था किसी रहनुमा के पार कराने के अहद⁵ की बात से।
बदला वक़्त, मैं बदला, अब नुक्ता-ए-नज़र⁶, भी तो बदला जाए।
इबादत⁷ कर के थक गया हूँ, अब "भैया" से मुहब्बत कर के भी देखा जाए।
1=भक्त 2=बिखरा हुआ 3=संघर्ष 4=आशावान 5=वादा 6=दृष्टिकोण 7=पूजा