By Rajat Kushwaha

मुझे नहीं सिखाया गया
कि पढ़ सकूँ तुम्हारे मौन की कथा,
ना जान सका मैं कभी
कि होती है
अधिक मुस्कुराहटों के पीछे भी एक दबी व्यथा।
समाज ने बस यही सिखाया
कि रोटियाँ गर्म हों
और सिलबट्टे पर पीसी चटनी के स्वाद में
कमी ना हो।
पर नहीं बताया किसी ने
कि हर चोट के साथ पिसते हैं
तुम्हारे अधूरे सपने,
और जलते हैं गर्म तवे पर
तुम्हारे अधूरे ख़्वाब।
मैं बरामदे की चौक पे बैठ
करता रहा तमाम फ़रमाइशें,
पर देख नहीं सका कभी
माथे से गिरते पसीने और
फटी बिवाइयों वाले दौड़ते उन क़दमों को।
वो जब कभी थककर तुम पीठ फेर लेती,
मैं समझ नहीं पाया
कि ये पीठ नहीं, दरवाज़े हैं
जो प्रतिदिन बंद होते जा रहे हैं
मेरे और तुम्हारे दरमियान।
मुझे नहीं सिखाया गया कि पढ़ सकूँ
माहवारी के दिनों में
तुम्हारे अंदर उठते तूफ़ान को,
और मुस्कुराहटों में छिपे
समाज के निष्ठुर विधान को।
जब-जब चाहा मैंने
पढ़ना तुम्हारी खामोशी,
और चाहा समझना तुम्हारे मौन को,
तब लगा उपहास कर रहा है कोई
मेरे पुरुषत्व का,
और नवाज़ा गया मुझे
'जोरू का ग़ुलाम' जैसी अनेक उपाधियों से।
मैंने पाया तुम्हें हर क्षण तत्पर
और तैयार
एक अनजाने युद्ध के लिए,
जिसमें ना पुरस्कार था, ना सम्मान,
और तुमने भी बाँध लिया
अपने भय और थकान को
अपने पल्लू की गाँठ में।
समाज ने तुम्हें परोसा
जैसे तुम देह नहीं, थाली हो,
और तुम्हें बाँधा गया
झूठी मर्यादाओं की बेड़ियों में।
तुमसे ही जन्म पाकर और पूजकर भी तुम्हीं को
नर्क का द्वार बना दिया गया।
मैं वादा करता हूँ,
मैं सिखाऊँगा अपनी पीढ़ियों को
सिर्फ़ बोलना नहीं, सुनना भी,
और बताऊँगा—
जब कोई चुप हो जाए तो उसे छोड़ना मत,
कई बार मौन एक गहन संवाद होता है।
This poetry is wonderful and through this poem ,the poet is creating an understanding of respect for women in the minds of men ,which is very praiseworthy and necessary to .I love it
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