By Rahul Singh
तुम किसी औरत को जानते हो,
सिर्फ़ जिस्म ही नहीं मिजाज भी,
जिसे जबाना औरत की नाम से जानता है,
ऐसा कोई मोहतर्म देखे हो,
हड्डी पे मास और चमड़ी चिपकाके,
किसी आदतें ख़ास से बात करके,
नर्मदिली से तहजीबियत करके,
कोई नम मुस्कान की अदाकारी से,
पूरा दुरुस्त औरत नहीं हो सकता।
महज लिबाज, जिस्मानी बनावट,
जुल्फ की आदत ए फिसलन,
तय नज़ाकत, कमउम्र सिसकन,
बेपरवाह उम्रबाजी, मजबूत हठपन,
किसी अंधे की जांघ पे बैठ के,
अपनी खूबसूरती की तारीफ,
सुनने वाला मोहतरम औरत नहीं हो सकता।
समझ का कोई भी किनारा अक्ल पे चोट करे,
सहूलियत में थोड़ा सा नशा मिला के कोई बोले,
अगर जिंदा जज़्बात गर्दन ऊंचा करके हामी भरें,
तो सच किसी भी सम्त की हवा में घुल सकता है,
कमसमझ के नुखिलेपन से डरता कोई भी शख्स,
इस वक्त भी एक पूरा दुरुस्त औरत बन सकता है।
ना जाने क्यों हर शख्स मर्द बन रहा है,
हैरत-ए-ख़ास ये है की जिस्मानी औरतें भी,
पत्थर का कलेजा, फौलादी दुरुस्त जिस्म,
ये जो काबिलियत है तुम्हारी मर्दानगी की,
तो बगैर परहेज-ए-नकासी के हर बुत मर्द है,
अब कोई शख्स सिर्फ औरत नहीं बचा है,
और ना ही कोई उम्दा मोहतरम पूरा मर्द,
जैसे कोई रहम करके खुदा नहीं हो सकता,
कोई जिस्म लपेट के औरत भी नहीं बन सकता।
अगर जो तुम समझ की बालकोनी से निकलोगे,
सच के धूप में वक्त का नंगा जिस्म देखोगे,
तो असलियत साफ उभरा नज़र आएगा,
औरत ना होना ही मर्द होना नहीं है,
और ना ही मर्दपरस्त होना औरत होना है,
तुम अपनी समझ के तय इलाकों से ही ना गुजरो,
वहां भी जाओ जहाँ जाने में एक मर्द को तकलीफ हो,
अपने अंदर की औरत को आज़ाद तो करो,
अपने उभरे हुए सख्त मर्द को थोड़ा ख़ामोश तो करो,
तुम्हे एहसास होगा कोई पूरा मर्द नहीं हो सकता।
तुम जानते हो किसी औरत को...
जो सूरज के जांघ पे कोयला मालती हो,
जिसके जिस्म में चांद की ठंडक हो,
जिसकी ख़ामोशी में हवाओं की बेताबी हो,
जो खूबसूरती के पैमाने तय करती हो,
जिसका जिस्म मर्द को औरत बनने पे मजबूर करता हो,
जिसके आंसू जल्लाद के दिल में रहम भरता हो,
"ज़ालिम" किसी की आंख में आँसू एक मर्दानी हार है,
जो किसी को एक दुरुस्त औरत बना सकता है।।