By Rachit Kapoor

एक दिया सा जलती है...
बेटी जब जन्म लेती है...
रोशन कर खुशियों का जहाँ,
ममता का बीज वो बोती है...
लक्ष्मी कह कर उसका स्वागत करो,
क्यूँ उससे तुम मुँह मोड़ते हो?
बेटा-बेटी के पलड़े में,
क्यूँ खुद के हिस्से तो तौलते हो?
बेटी ही माँ बन इक दिन,
नया सृजन वो करती है...
फिर क्यूँ उसके होने पर ही
मातम ममता पर करते हो?
क्यूँ हो भूलते, कि जन्मे हो जिस अंश से,
वो भी किसी की बेटी है...
जब दर्द वो सहती नौ माह तक,
तब सृजन नया वो करती है...
उसके भी कुछ सपने, अरमान-
नन्हे से दिल में खिलते हैं...
फिर क्यूँ नन्ही परी सी जान को
यूँ बेदर्दी से हम मसलते हैं?
क्या यही दिया है सभ्य समाज ने-
कि पुरुष को ही जीने का अधिकार मिले?
जब बेटी न होगी इस जहाँ में,
"बेटे" शब्द को कैसे फिर आकार मिले?